________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[137 प्रति अरुचि है। जिसे धर्म की अरुचि हुई, उसे आत्मा की अरुचि हुई और आत्मा की अरुचिपूर्वक जो क्रोध, मान, माया, लोभ रहता है, वह अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्धी माया, और अनन्तानुबन्धी लोभ होता है। इसलिए जो धर्मात्मा का अनादर करता है, वह अनन्तानुबन्धी राग-द्वेषवाला है और उसका फल अनन्त संसार है।
जिसे धर्मरुचि है, उसे परिपूर्ण स्वभाव की रुचि है। उसे अन्य धर्मात्माओं के प्रति उपेक्षा, अनादर या ईर्ष्या नहीं हो सकती। यदि अपने से पहले कोई दूसरा केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध हो जाये तो उसे खेद नहीं होगा, किन्तु अन्तर से प्रमोद जाग्रत होगा कि अहो! धन्य है, इस धर्मात्मा को! जो मुझे इष्ट है, वह इसने प्रगट किया है। मुझे इसी की रुचि है, आदर है, भाव है, चाह है; इस प्रकार अन्य जीवों की धर्मवृद्धि देखकर, धर्मात्मा अपने धर्म की पूर्णता की भावना भाता है; इसलिए उसे अन्य धर्मात्माओं को देखकर हर्ष होता है, उल्लास होता है और इस प्रकार धर्म के प्रति आदरभाव होने से वह अपने धर्म की वृद्धि करके पूर्ण धर्म प्रगट करके सिद्ध हो जायेगा।(-दिनांक 12-4-45 का पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी का व्याख्यान)
सम्यक्त्वी सर्वत्र सुखी सम्यग्दर्शन सहित जीव का नरकवास भी श्रेष्ठ है, परन्तु सम्यग्दर्शन रहित जीव का स्वर्ग में रहना भी शोभा नहीं देता; क्योंकि आत्मभान बिना स्वर्ग में भी वह दु:खी है। जहाँ आत्मज्ञान है, वहीं सच्चा सुख है। (-सारसमुच्चय - 39)
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.