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निःशङ्कता
जिसका वीर्य भव के अन्त की निःसन्देह श्रद्धा में प्रवर्तित नहीं होता और अभी भी भव की शङ्का में प्रवर्तमान है, उसके वीर्य में अनन्तों भव करने की सामर्थ्य मौजूद है। ___ भगवान ने कहा है कि – 'तेरे स्वभाव में भव नहीं है' यदि तुझे भव की शङ्का हो गयी तो तूने भगवान की वाणी को अथवा अपने भवरहित स्वभाव को माना ही नहीं है। जिसका वीर्य अभी भवरहित स्वभाव की निःसन्देह श्रद्धा में प्रवर्तित नहीं हो सकता, जिसके अभी यह शङ्का मौजूद है कि मैं भव्य हूँ या अभव्य हूँ, उसका वीर्य, वीतराग की वाणी का कैसे निर्णय कर सकेगा और वीतराग की वाणी के निर्णय के बिना उसे अपने स्वभाव की पहचान कैसे होगी? इसलिए पहले भवरहित स्वभाव की निःशङ्कता को लाओ!!! ...
सर्व दुःखों का परम-औषधि जो प्राणी, कषाय के आताप से तप्त हैं, इन्द्रियविषयरूपी रोग से मूर्च्छित हैं, और इष्टवियोग तथा अनिष्टसंयोग से खेद -खिन्न हैं - उन सबके लिए सम्यक्त्व परम हितकारी औषधि है।
(-सारसमुच्चय-38)
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