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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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मुख्य गति दो हैं – एक निगोद और दूसरी सिद्ध । यदि सत् का इन्कार कर दिया गया तो कदाचित् एकाध अन्य भव लेकर भी बाद में निगोद में ही जाता है। सत् के विरोध का फल निगोद ही है और यदि एकबार भी अन्तर से सत् का हकार आ गया तो उसकी मुक्ति निश्चित है। हकार का फल सिद्ध और नकार का फल निगोद है। यह जो कहा गया है, त्रिकाल परम सत्य है। तीन काल और तीन लोक में यदि सत् चाहिए हो तो जगत को यह मानना ही पड़ेगा। सत् में परिवर्तन नहीं होता; सत् को समझने के लिए तुझे ही बदलना होगा। सिद्ध होने के लिए सिद्धस्वरूप का हकार होना चाहिए।
भवपार होने का उपाय शेष अचेतन सर्व छे, जीव सचेतन सार। जाणी जेने मुनिवरो, शीघ्र लहे भवपार ॥26॥ जो शुद्धातम अनुभवो, तजी सकल व्यवहार। जिनप्रभु अमज भणे, शीघ्र थशो भवपार ॥37॥
भावार्थ :-जीव के अतिरिक्त जितने पदार्थ हैं, वे सब अचेतन हैं; चेतना तो मात्र जीव ही है और वही सारभूत है; उसे जानकर परम मुनिवर शीघ्र ही भवपार को प्राप्त होते हैं।
श्री जिनेन्द्रदेव कहते हैं कि हे जीव! सर्व व्यवहार को छोड़कर यदि तू निर्मल आत्मा को जानेगा तो शीघ्र ही भवपार हो जाएगा।
-योगसार
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