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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 अपनी पहिचान की छाप अपने ऊपर डालता है, तब निमित्त में मात्र आरोप किया जाता है। बाहर से ज्ञानी पहिचाना नहीं जा सकता क्योंकि यह हो सकता है कि ज्ञानी होने पर भी बाह्य में हजारों स्त्रियाँ हों और अज्ञानी के बाह्य में कछ न हो। ज्ञानी को पहिचानने के लिए यदि तत्त्वदृष्टि हो तो ही वह पहिचाना जा सकता है। ज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर बाह्य में कोई फर्क दिखायी दे या न दे, किन्तु अन्तर्दृष्टि में फर्क पड़ ही जाता है। सत् के सुनते ही एक कहता है कि अभी ही सत् बताइये-ऐसा कहनेवाला सत् का हकार करके सुनता है, वह समझने के योग्य है और दूसरा कहता है कि अभी यह नहीं, अभी यह मेरी समझ में नहीं आ सकता' - ऐसा कहनेवाला सत् के नकार से सुनता है। इसलिए वह समझ नहीं सकता। श्री समयसारजी की पहली गाथा में यह स्थापित किया गया है कि मैं और तू दोनों सिद्ध हैं, इसके सुनते ही सबसे पहली आवाज में यदि हाँ आ गयी तो वह योग्य है – उसकी अल्प काल में मुक्ति हो जाएगी और यदि बीच में कोई नकार आ गया तो वह समझने में अर्गला (अवरोधक) समान है।
प्रश्न – यदि अच्छा सत्समागम हो तो उसका असर होता है या नहीं?
उत्तर – बिल्कुल नहीं, किसी का असर किसी के ऊपर हो ही नहीं सकता। सत्समागम भी पर है। पर की छाप तीन काल और तीन लोक में अपने ऊपर नहीं पड़ सकती।
अहो! यह परम सत्य दुर्लभ है। सच्ची समझ के लिए सर्व प्रथम सत् का हकार आना चाहिए।
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