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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[131 दूसरे समय में नष्ट हो जाती है) शरीर अनन्त परमाणुओं का समूह है और आत्मा चैतन्यमूर्ति है। भला, इसे शरीर के साथ क्या लेनादेना? जैनधर्म का यह त्रिकाल अबाधित कथन है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की पर्याय को उत्पन्न नहीं कर सकता। इसे न मानकर, मेरे से पर की अवस्था हुई अथवा हो सकती है, यों मानता है, यही अज्ञान है। जहाँ जिनेन्द्र की कथनी को भी नहीं मानता, वहाँ जैनधर्म को कहाँ से समझेगा? यह आत्मा यदि पर का कुछ कर सकता होता, तभी तो पर का कुछ करने का अथवा पर के त्याग करने का प्रश्न आता!
विकार पर में नहीं, किन्तु अपनी एक समय की पर्याय में है। यदि दूसरे समय में नया विकार करे तो वह होता है। 'राग का त्याग करूँ' – ऐसी मान्यता भी नास्ति से है। अस्तिस्वरूप शुद्धात्मा के भान के बिना राग की नास्ति कौन करेगा? आत्मा में कोई पर का प्रवेश है ही नहीं, तो फिर त्याग किसका? परवस्तु के त्याग का कर्तत्व व्यर्थ ही विपरीत मान रखा है, उसी मान्यता का त्याग करना है।
प्रश्न – यदि सत्य समझ में आ जाए तो बाह्य वर्तन में कोई फर्क न दिखायी दे अथवा लोगों के ऊपर उसके ज्ञान की छाप न पड़े?
उत्तर – एक द्रव्य की छाप दूसरे द्रव्य पर कभी तीन लोक और तीन काल में पड़ती ही नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है। यदि एक की छाप दूसरे पर पड़ती होती तो त्रिलोकीनाथ तीर्थङ्कर भगवान की छाप अभव्य जीव पर क्यों नहीं पड़ती? जब जीव स्वयं अपने द्वारा ज्ञान करके
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