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बिना धर्मात्मा, धर्म नहीं रहता )
'न धर्मो धार्मिकैर्विना' । धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं होता। जिसे धर्म-रुचि होती है, उसे धर्मात्मा के प्रति रुचि होती है। जिसे धर्मात्माओं के प्रति रुचि नहीं होती, उसे धर्म-रुचि नहीं होती। जिसे धर्मात्मा के प्रति रुचि
और प्रेम नहीं है, उसे धर्म-रुचि और प्रेम नहीं है और जिसे धर्मरुचि नहीं है, उसे धर्मी (स्वयं के) आत्मा के प्रति ही रुचि नहीं है। धर्मी के प्रति रुचि न हो और धर्म के प्रति रुचि हो, यह हो ही नहीं सकता, क्योंकि धर्म तो स्वभाव है, वह धर्मी के बिना नहीं होता। जिसे धर्म के प्रति रुचि होती है, उसे किसी धर्मात्मा पर अरुचि, अप्रेम या क्रोध नहीं हो सकता। जिसे धर्मात्मा प्यारा नहीं, उसे धर्म भी प्यारा नहीं हो सकता और जिसे धर्म प्यारा नहीं, वह मिथ्यादृष्टि है। जो धर्मात्मा का तिरस्कार करता है, वह धर्म का ही तिरस्कार करता है, क्योंकि धर्म और धर्मी पृथक् नहीं हैं।
स्वामी समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्डश्रावकाचार के 26वें श्लोक में कहा है कि - "न धर्मो धार्मिकैर्विना"। इसमें दुतरफा बात कही गयी है, एक तो यह कि - जिसे अपने निर्मल शुद्धस्वरूप की अरुचि है, वह मिथ्यादृष्टि है; और दूसरा यह कि जिसे धर्मस्थानों या धर्मी जीवों के प्रति अरुचि है, वह मिथ्यादृष्टि है।
यदि इसी बात को दूसरे रूप में विचार करें तो ऐसा कहा जा
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