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सम्यग्दर्शन : भाग-1] 'पुण्य से धर्म नहीं होता और, जीव पर कुछ नहीं कर सकताऐसे कहनेवाले झूठे हैं और इसलिए 'पुण्य से धर्म नहीं होता और जीव, पर कुछ नहीं कर सकता,' ऐसा कहनेवाले त्रिकाल के अनन्त तीर्थङ्कर केवली भगवान, सन्त-मुनि और सम्यग्ज्ञानी जीवों को –इन सबको उसने एक क्षणभर में झूठा माना है। इस प्रकार मिथ्यात्व के एक समय के विपरीत वीर्य में अनन्त सत् के निषेध का महापाप है।
और फिर मिथ्यादृष्टि जीव के अभिप्राय में यह भी होता है कि जैसे मैं (जीव) पर, कर्ता हूँ और पुण्य-पाप का कर्ता हूँ, उसी प्रकार जगत के सभी जीव सदाकाल परवस्तु के और पुण्यपापरूप विकार के कर्ता हैं । इस प्रकार विपरीत मान्यता से उसने जगत् के सभी जीवों को पर का कर्ता और विकार का स्वामी बना डाला, अर्थात् उसने अपनी विपरीत मान्यता के द्वारा सभी जीवों के शुद्ध अविकार स्वरूप की हत्या कर डाली। यह महा विपरीत दृष्टि का सबसे बड़ा पाप है। त्रैकालिक सत् का एक क्षणभर के लिए भी अनादर होना, वही बहुत बड़ा पाप है। ___ मिथ्यात्वी जीव मानता है कि एक जीव दूसरे जीव का कुछ कर सकता है, अर्थात् दूसरे जीव मेरा कार्य कर सकते हैं और मैं दूसरे जीवों का कार्य कर सकता हूँ, इस मान्यता का अर्थ यह हुआ कि जगत् के सभी जीव परमुखापेक्षी हैं और पराधीन हैं। इस प्रकार उसने अपनी विपरीतमान्यता से जगत् के सभी जीवों के स्वाधीन स्वभाव की हिंसा की है; इसलिए मिथ्यामान्यता ही महान् हिंसकभाव है और यही सबसे बड़ा पाप है।
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