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[ सम्यग्दर्शन : भाग - 1
ज्ञान और लीनता प्रगट होते हैं, उनका आश्चर्य लाकर एकबार
पड़ौसी हो ।
जैसे
मुसलमान और वणिक का घर पास-पास हो तो वणिक उसका पड़ौसी होकर रहता है परन्तु वह मुसलमान के घर को अपना नहीं मानता; उसी प्रकार, हे भव्य ! तू भी चैतन्यस्वभाव में स्थिर होकर परपदार्थों का दो घड़ी पड़ौसी हो, पर से भिन्न आत्मा का अनुभव कर । शरीर, मन, वाणी की क्रिया तथा पुण्यपाप के परिणाम, वे सब पर हैं। विपरीत पुरुषार्थ द्वारा पर का स्वामित्व माना है, विकारी भावों की ओर तेरा बाह्य का लक्ष्य है, वह सब छोड़कर, स्वभाव में श्रद्धा, ज्ञान और लीनता करके, एक अन्तमुर्हृत अर्थात् दो घड़ी पृथक् होकर, चैतन्यमूर्ति आत्मा को पृथक् देख! चैतन्य की विलासरूप मौज को किञ्चित् पृथक् होकर देख ! उस मौज को अन्तर में देखने से शरीरादि के मोह को तू तुरन्त ही छोड़ सकेगा । 'झगिति' अर्थात् तुरन्त छोड़ सकेगा । यह बात सरल है, क्योंकि तेरे स्वभाव की है । केवलज्ञान लक्ष्मी को स्वरूपसत्ता भूमि में स्थित होकर देख ! तो पर के साथ मोह को तुरन्त छोड़ सकेगा।
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तीन काल, तीन लोक की प्रतिकूलता के समूह एक साथ आकर सम्मुख खड़े रहें, तथापि मात्र ज्ञातारूप से रहकर, वह सब सहन करने की शक्ति आत्मा के ज्ञायकस्वभाव की एक समय की पर्याय में विद्यमान है। जिसने शरीरादि से भिन्नरूप आत्मा को जाना है, उसे इन परीषहों के समूह किञ्चित्मात्र असर नहीं कर सकते, अर्थात् चैतन्य अपने व्यापार से किञ्चित्मात्र नहीं डिगता।
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