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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [117 और मान्यता-दोनों के एक होने पर सम्यक् श्रद्धा और सम्यग्ज्ञान होता है। वस्तु का सच्चा स्वरूप क्या है ? यह जानने के लिये अरहन्त को जानने की आवश्यकता है, क्योंकि अरहन्त भगवान द्रव्य, गुण, पर्यायस्वरूप से सम्पूर्ण शुद्ध हैं। जैसे अरहन्त हैं, वैसा ही जब तक यह आत्मा न हो, तब तक उसकी पर्याय में दोष है - अशुद्धता है। अरहन्त जैसी अवस्था तब होती है, जब पहले अरहन्त के स्वरूप से अपने आत्मा का शुद्धस्वरूप निश्चित करे। उस शुद्धस्वरूप में एकाग्रता करके, भेद को तोड़कर, अभेदस्वरूप का आश्रय करके पराश्रयबुद्धि का नाश होता है, मोह दूर होता है और क्षायिकसम्यक्त्व प्रगट होता है। क्षायिकसम्यक्त्व के प्रगट होने पर आंशिक अरहन्त जैसी दशा प्रगट होती है और अरहन्त होने के लिये प्रारम्भिक उपाय सम्यग्दर्शन ही है। अभेदस्वभाव की प्रतीति के द्वारा सम्यग्दर्शन होने के बाद, जैसे-जैसे उस स्वभाव में एकाग्रता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे राग दूर हो जाता है और ज्यों-ज्यों राग कम होता जाता है, त्यों-त्यों व्रत-महाव्रतादि का पालन होता रहता है, किन्तु अभेदस्वभाव की प्रतीति के बिना कभी भी व्रत या महाव्रतादि नहीं होते। अपने आत्मा का आश्रय लिए बिना, आत्मा के आश्रय से प्रगट होनेवाली निर्मलदशा (श्रावकदशा, मुनिदशा आदि) नहीं हो सकती और निर्मलदशा के प्रगट हुए बिना धर्म का एक भी अङ्ग प्रगट नहीं हो सकता। अरहन्त की पहिचान होने पर, अपनी पहिचान हो जाती है और अपनी पहिचान होने पर, मोह का क्षय हो जाता है। तात्पर्य यह है कि अरहन्त की सच्ची पहिचान, मोहक्षय का उपाय है। Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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