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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 को कोई आश्रय न रहा; इसलिए वह निराश्रित मोह अवश्य क्षय को प्राप्त होता है। श्रद्धारूपी सामायिक और प्रतिक्रमण :
यहाँ सम्यग्दर्शन को प्रगट करने का उपाय बताया जा रहा है। सम्यग्दर्शन के होने पर ऐसी प्रतीति होती है कि पुण्य
और पाप दोनों पर-लक्ष्य से-भेद के आश्रय से हैं, अभेद के आश्रय से पुण्य-पाप नहीं हैं। इसलिए पुण्य-पाप मेरा स्वरूप नहीं हैं, दोंनो विकार हैं-यह जानकर, पुण्य और पाप - दोनों में समभाव हो जाता है, यही श्रद्धारूपी सामायिक है। पुण्य अच्छा है और पाप बुरा है, यह मानकर जो पुण्य को आदरणीय मानता है, उसके भाव में पुण्य-पाप के बीच विषमभाव है, उसके सच्ची श्रद्धारूपी सामायिक नहीं है।
सच्ची श्रद्धा के होने पर मिथ्यात्वभाव से हट जाना ही सर्व प्रथम प्रतिक्रमण है। सबसे बड़ा दोष मिथ्यात्व है और सबसे पहले उस महादोष से ही प्रतिक्रमण होता है। मिथ्यात्व से प्रतिक्रमण किये बिना किसी जीव के यथार्थ प्रतिक्रमण आदि कुछ नहीं होता। सम्यग्दर्शन और व्रत- महाव्रत :
जब तक अरहन्त के द्रव्य, गुण, पर्याय का लक्ष्य था, तब तक भेद था; जब द्रव्य, गुण, पर्याय के भेद को छोड़कर अभेद स्वभाव की ओर झुका और वहाँ एकाग्रता की, तब स्वभाव को अन्यथा माननेरूप मोह नहीं रहता और इसलिए मोह निराश्रय होकर नष्ट हो जाता है और इस प्रकार अरहन्त को जाननेवाले जीव के सम्यग्दर्शन हो जाता है। वस्तु का स्वरूप जैसा हो, वैसा माने तो वस्तु-स्वरूप
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