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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [115 बात करते हैं । चिन्मात्रभाव की प्राप्ति और मोह का क्षय, यह दोनों एक ही समय में होते हैं। _ 'इस प्रकार जिसका निर्मल प्रकाश मणि (रत्न) के समान अकम्परूप से प्रवर्तमान है, ऐसे उस चिन्मात्रभाव को प्राप्त जीव का मोहान्धकार निराश्रयता के कारण अवश्य ही नष्ट हो जाता है।' (- गाथा 80 की टीका) ___यहाँ शुद्ध सम्यक्त्व की बात है; इसलिए मणि का दृष्टान्त दिया है। दीप का प्रकाश तो प्रकम्पित होता रहता है, वह एक समान नहीं रहता, किन्तु मणि का प्रकाश अकम्परूप से सतत् प्रवर्तमान रहता है, उसका प्रकाश कभी बुझ नहीं जाता; इसी प्रकार अभेद चैतन्यस्वभावी भगवान आत्मा में लक्ष्य करके, वहाँ एकाकाररूप से प्रवर्तमान जीव के चैतन्य का अकम्प प्रकाश प्रगट होने पर, मोहान्धकार को रहने का कोई स्थान नहीं रहता; इसलिए वह मोहान्धकार निराश्रय होकर अवश्यमेव क्षय को प्राप्त होता है। जब भेद की ओर मुग्ध रहा था, तब अभेद चैतन्यस्वभाव का आश्रय न होने से चैतन्यप्रकाश प्रगट नहीं था और अज्ञान-आश्रय से मोहोन्धकार बना हुआ था। अब अभेद चैतन्य के आश्रय में पर्याय ढल गयी है और सम्यग्ज्ञान का प्रकाश प्रगट हो गया है, तब फिर मोह किसके आश्रय से रहेगा? मोह का आश्रय तो अज्ञान था, जिसका नाश हो चुका है और स्वभाव के आश्रय से मोह रह नहीं सकता; इसलिए वह अवश्य क्षय को प्राप्त हो जाता है। जब पर्याय का लक्ष्य पर में था, तब उस पर्याय में भेद था और उस भेद का मोह को आश्रय था, किन्तु जब वह पर्याय निज लक्ष्य की ओर गयी, तब वह अभिन्न हो गयी और अभेद होने पर, मोह Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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