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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 स्वभाव की निःशङ्कता :
अब आचार्यदेव अपनी नि:शङ्कता की साक्षीपूर्वक कहते हैं कि – 'यदि ऐसा है तो मैंने मोह की सेना को जीतने का उपाय कर लिया है।' यहाँ मात्र अरहन्त को जानने की बात नहीं है, किन्तु अपने स्वभाव को एकमेक करके यह ज्ञान करने की बात है कि मेरा स्वरूप अरहन्त के समान ही है।
यदि अपने स्वभाव की निःशङ्कता प्राप्त न हो तो अरहन्त के स्वरूप का यथार्थ निर्णय नहीं होता। आचार्यदेव अपने स्वभाव की निःशङ्कता से कहते हैं कि भले ही इस काल में क्षायिकसम्यक्त्व
और साक्षात् भगवान अरहन्त का योग नहीं है, तथापि मैंने मोह की सेना को जीतने का उपाय प्राप्त कर लिया। ‘पञ्चम काल में मोह का सर्वथा क्षय नहीं हो सकता'- ऐसी बात आचार्यदेव ने नहीं की, किन्तु मैंने तो मोहक्षय का उपाय प्राप्त कर लिया है – ऐसा कहा है। भविष्य में मोहक्षय का उपाय प्रगट होगा - ऐसा नहीं, किन्तु अब ही वर्तमान में ही मोहक्षय का उपाय मैंने प्राप्त कर लिया है।
अहो! सम्पूर्ण स्वरूपी आत्मा का साक्षात् अनुभव है तो फिर क्या नहीं है ! आत्मा का स्वभाव ही मोह का नाशक है और मुझे आत्मस्वभाव की प्राप्ति हो चुकी है; इसलिए मेरे मोह का क्षय होने में कोई शङ्का नहीं है । आत्मा में सबकुछ है, उसी के बल से दर्शनमोह और चारित्रमोह का सर्वथा क्षय करके, केवलज्ञान प्रगट करके, साक्षात् अरहन्तदशा प्रगट करूँगा। जब तक ऐसी सम्पूर्ण स्वभाव की नि:शङ्कता का बल प्राप्त नहीं होता, तब तक मोह दूर नहीं होता।
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