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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[111 द्रव्य, गुण, पर्याय के स्वरूप को जानने के बाद मात्र अभेदस्वरूप आत्मा का अनुभव करना ही धर्म की प्रथम क्रिया है। इसी क्रिया से अनन्त अरहन्त तीर्थङ्कर, क्षायिकसम्यग्दर्शन प्राप्त करके केवलज्ञान और मोक्षदशा को प्राप्त हुए हैं। वर्तमान में भी मुमुक्षुओं के लिये यही उपाय है और भविष्य में जो अनन्त तीर्थङ्कर होंगे, वे सब इसी उपाय से होंगे।
सर्व जीवों को सुखी होना है, सुखी होने के लिये स्वाधीनता चाहिए; स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये सम्पूर्ण स्वाधीनता का स्वरूप जानना चाहिए। सम्पूर्ण स्वाधीन अरहन्त भगवान हैं, इसलिए अरहन्त का ज्ञान करना चाहिए। जैसे अरहन्त के द्रव्य, गुण, पर्याय हैं, वैसे ही अपने हैं। अरहन्त के राग-द्वेष नहीं हैं, वे न तो अपने शरीर का कुछ करते हैं और न पर का ही कुछ करते हैं। उनके दया अथवा हिंसा के विकारी भाव नहीं होते, वे मात्र ज्ञान ही करते हैं; इसी प्रकार मैं भी ज्ञान करनेवाला ही हूँ, अन्य कुछ मेरा स्वरूप नहीं है।
वर्तमान में मेरे ज्ञान में कचाई है, वह मेरी अवस्था के दोष के कारण से है; अवस्था का दोष भी मेरा स्वरूप नहीं है। इस प्रकार पहले भेद के द्वारा निश्चित करना चाहिए, किन्तु बाद में भेद के विचार को छोड़कर, मात्र आत्मा को जानने से स्वाधीनता का उपाय प्रगट होता है। द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप जानने का फल :
पर्यायों को और गुण को एक-द्रव्य में अन्तर्लीन करके केवल
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