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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[109 कि 'चिद्-विवों को चेतन में ही संक्षिप्त करके' और फिर कहा है कि 'चैतन्य को चेतन में ही अन्तनिहित करके' यहाँ पर पहले कथन में पर्याय को द्रव्य के साथ अभेद करने की बात है और दूसरे में गुण को द्रव्य के साथ अभेद करने की बात है; इस प्रकार पर्याय को और गुण को द्रव्य में अभेद करने की बात क्रम से समझाई है, किन्तु अभेद का लक्ष्य करने पर वे क्रम नहीं होते। जिस समय अभेद द्रव्य की ओर ज्ञान झुकता है, उसी समय पर्यायभेद और गुणभेद का लक्ष्य एक साथ दूर हो जाता है, समझाने में तो क्रम से ही बात आती है। __ जैसे झूलते हुए हार को लक्ष्य में लेते समय ऐसा विकल्प नहीं होता कि 'यह हार सफेद है' अर्थात् उसकी सफेदी को झूलते हुए हार में ही अलोप कर दिया जाता है; इसी प्रकार आत्मद्रव्य में यह आत्मा और ज्ञान उसका गुण अथवा आत्मा ज्ञानस्वभावी'- ऐसे गुण-गुणी भेद की कल्पना दूर करके, गुण को द्रव्य में ही अदृश्य करना चाहिए। मात्र आत्मा को लक्ष्य में लेने पर, ज्ञान और आत्मा के भेदसम्बन्धी विचार अलोप हो जाते हैं -गुण-गुणी भेद का विकल्प टूटकर एकाकार चैतन्यस्वरूप का अनुभव होता है । यही सम्यग्दर्शन है।
हार में पहले तो मोती का मूल्य, उसकी चमक और हार की गुथाई को जानता है, पश्चात् मोती का लक्ष्य छोड़कर 'यह हार सफेद है', इस प्रकार गुण-गुणी के भेद से हार को लक्ष्य में लेता है और फिर मोती, उसकी सफेदी और हार-इन तीनों के सम्बन्ध के विकल्प छूटकर; मोती और उसकी सफेदी को हार में ही अदृश्य करके मात्र हार का ही अनुभव किया जाता है; इसी प्रकार
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