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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 पहले अरहन्त जैसे द्रव्य-गुण-पर्याय से अपने आत्मा को लक्ष्य में लेकर, पश्चात् जिस जीव ने गुण-पर्यायों को एक द्रव्य में संकलित किया है, उसे आत्मा को स्वभाव में धारण कर रखा है। जहाँ आत्मा को स्वभाव में धारण किया, वहाँ मोह को रहने का स्थान नहीं रहता, अर्थात् मोह निराश्रयता के कारण उसी क्षण क्षय को प्राप्त होता है। पहले अज्ञान के कारण द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद करता था; इसलिए उन भेदों के आश्रय से मोह रह रहा था, किन्तु जहाँ द्रव्य, गुण, पर्याय को अभेद किया, वहाँ द्रव्य, गुण, पर्याय का भेद दूर हो जाने से मोह क्षय को प्राप्त होता है। द्रव्य, गुण, पर्याय की एकता ही धर्म है और द्रव्य, गुण, पर्याय के बीच भेद ही अधर्म है।
पृथक्-पृथक् मोती विस्तार है, क्योंकि उनमें अनेकत्व है और सभी मोतियों के अभेदरूप में जो एक हार है, सो संक्षेप है। जैसे पर्याय के विस्तार को द्रव्य से संकलित कर दिया; उसी प्रकार विशेष्य-विशेषणपने की वासना को भी दूर करके गुण को भी द्रव्य में ही अन्तरनिहित करके, मात्र आत्मा को ही जानना और इस प्रकार आत्मा को जानने पर, मोह का क्षय हो जाता है। पहले यह कहा था कि 'मन के द्वारा जान लेता है'; किन्तु वह जानना विकल्पसहित था और यहाँ जो जानने की बात कही है, वह विकल्परहित अभेद का जानना है। इस जानने के समय परलक्ष्य तथा द्रव्य, गुण, पर्याय के भेद का लक्ष्य छूट चुका है।
यहाँ (मूलटीका में) द्रव्य, गुण, पर्याय को अभेद करने से सम्बन्धित पर्याय और गुण के क्रम से बात की है। पहले कहा है
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