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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [107 है। प्रत्येक मोती उस हार का विशेष है और उन विशेषों को यदि एक सामान्य में संकलित किया जाए तो हार लक्ष्य में आता है। हार की तरह आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्यायों को जानकर, पश्चात् समस्त पर्यायों को और गुणों को एक चैतन्य द्रव्य में ही अन्तर्गत करने पर, द्रव्य का लक्ष्य होता है और उसी क्षण सम्यग्दर्शन प्रगट होकर मोह का क्षय हो जाता है। __ यहाँ झूलता हुआ अथवा लटकता हुआ हार इसलिए लिया है कि वस्तु कूटस्थ नहीं है, किन्तु प्रति समय झूल रही है, अर्थात् प्रत्येक समय में द्रव्य में परिणमन हो रहा है। जैसे हार के लक्ष्य से मोती का लक्ष्य छूट जाता है; उसी प्रकार द्रव्य के लक्ष्य से पर्याय का लक्ष्य छूट जाता है। पर्यायों में बदलनेवाला तो एक आत्मा है, बदलनेवाले के लक्ष्य से समस्त परिणामों को उसमें अन्तर्गत किया जाता है। पर्याय की दृष्टि से प्रत्येक पर्याय भिन्न-भिन्न है, किन्तु जब द्रव्य की दृष्टि से देखते हैं, तब समस्त पर्यायें उसमें अन्तर्गत हो जाती हैं इस प्रकार आत्मद्रव्य को ख्याल में लेना ही सम्यग्दर्शन है। प्रथम आत्मद्रव्य के गुण और आत्मा की अनादि-अनन्त काल की पर्याय, इन तीनों का वास्तविक स्वरूप (अरहन्त के स्वरूप के साथ सादृश्य करके) निश्चित किया हो तो फिर उन द्रव्य -गुण-पर्याय को एक परिणमित होते हुए, द्रव्य में समाविष्ट करके, द्रव्य को अभेदरूप से लक्ष्य में लिया जा सकता है। पहले सामान्य -विशेष (द्रव्य-पर्याय) को जानकर, फिर विशेषों को सामान्य में अन्तर्गत किया जाता है, किन्तु जिसने सामान्य-विशेष का स्वरूप न जाना हो, वह विशेष को सामान्य में अन्तर्लीन कैसे करे? Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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