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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 है, वहाँ तक विकल्प है, विकल्प के द्वारा आत्मलक्ष्य किया है। अब उस विकल्प को तोड़कर, द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद को छोड़कर, अभेद आत्मा का लक्ष्य करने की बात कहते हैं। इस अभेद का लक्ष्य करना ही अरहन्त को जानने का सच्चा फल है
और जब अभेद का लक्ष्य करता है, तब उसी क्षण मोह का क्षय हो जाता है।
जिस अवस्था के द्वारा अरहन्त को जानकर त्रैकालिक द्रव्य का ख्याल किया, उस अवस्था में जो विकल्प होता है, वह अपना स्वरूप नहीं है, किन्तु जो ख्याल किया है, वह अपना स्वभाव है। ख्याल करनेवाला जो ज्ञान है, वह सम्यक्ज्ञान की जाति का है, किन्तु अभी परलक्ष्य है; इसलिए यहाँ तक सम्यग्दर्शन प्रगटरूप नहीं है।
अब उस अवस्था को परलक्ष्य से हटाकर स्वभाव में संकलित करता है, भेद का लक्ष्य छोड़कर अभेद के लक्ष्य से सम्यग्दर्शन को प्रगटरूप करता है। जैसे मोती का हार झूल रहा हो तो उस झूलते हुए हार को लक्ष्य में लेने पर उसके पहले से अन्त तक के सभी मोती उस हार में ही समाविष्ट हो जाते हैं और हार तथा मोतियों का भेद लक्ष्य में नहीं आता। यद्यपि प्रत्येक मोती पृथक्पृथक् है, किन्तु जब हार को देखते हैं, तब एक-एक मोती का लक्ष्य छूट जाता है, परन्तु पहले हार का स्वरूप जानना चाहिए कि हार में अनेक मोती हैं और हार सफेद है। इस प्रकार पहले हार, हार का रङ्ग और मोती, इन तीनों का स्वरूप जाना हो तो उन तीनों को झूलते हुए हार में समाविष्ट करके, हार को एकरूप से लक्ष्य में लिया जा सकता है, मोतियों का जो लगातार तारतम्य है, सो हार
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