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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [105 हुआ है, यह बतलाते हैं। त्रैकालिक पदार्थ को इस प्रकार लक्ष्य में लेता है कि जैसे अरहन्त भगवान त्रिकाली आत्मा हैं, वैसा ही मैं त्रिकाली आत्मा हूँ। त्रिकाली पदार्थ को जान लेने में त्रिकाल जितना समय नहीं लगता, किन्तु वर्तमान एक समय की पर्याय के द्वारा त्रैकालिक का ख्याल हो जाता है - उसका अनुभव हो जाता है। क्षायिक सम्यक्त्व कैसे होता है, इसकी यह बात है। प्रारम्भिक प्रक्रिया यही है। इसी क्रिया के द्वारा मोह का क्षय होता है। ___ जीव को सुख चाहिए है। इस जगत में सम्पूर्ण स्वाधीन सुखी श्री अरहन्त भगवान हैं। इसलिए 'सुख चाहिये है' का अर्थ यह हुआ कि स्वयं भी अरहन्तदशारूप होना है। जिसने अपने आत्मा को अरहन्त जैसा माना है, वही स्वयं अरहन्त जैसी दशारूप होने की भावना करता है। जिसने अपने को अरहन्त जैसा माना है, उसने अरहन्त के समान द्रव्य-गुण-पर्याय के अतिरिक्त अन्य सब अपने आत्मा में से निकाल दिया है। (यहाँ पहले मान्यताश्रद्धा करने की बात है) परद्रव्य का कुछ करने की मान्यता, शुभराग से धर्म होने की मान्यता तथा निमित्त से हानि-लाभ होने की मान्यता दूर हो गयी है, क्योंकि अरहन्त के आत्मा के यह सब कुछ नहीं है। द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप जानने के बाद क्या करना चाहिए? अरहन्त के स्वरूप को द्रव्य-गुण-पर्यायरूप से जाननेवाला जीव, त्रैकालिक आत्मा को द्रव्य-गुण-पर्यायरूप से एक क्षण में समझ लेता है। बस! यहाँ आत्मा को समझ लेने तक की बात की Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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