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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 जाननेवाला जीव, द्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप अपने आत्मा को किस प्रकार जान लेता है। अरहन्त को जाननेवाला जीव, अपने ज्ञान में द्रव्य-गुण-पर्याय का इस प्रकार विचार करता है -
"यह चेतन है, ऐसा जो अन्वय, सो द्रव्य है, अन्वय के आश्रित रहनेवाला जो 'चैतन्य' विशेषण है, सो गुण है और एक समय की मर्यादावाला जिसका काल परिमाण होने से परस्पर अप्रवृत्त जो अन्वय के व्यतिरेक हैं (एक-दसरे में प्रवृत्त न होनेवाले जो अन्वय के व्यतिरेक हैं), सो पर्याय है, जो कि चिद्विवर्तन की ( आत्मा के परिणमन की ) ग्रन्थियाँ हैं।'
(-गाथा 80 की टीका) पहले अरहन्त भगवान को सामान्यतया जानकर, अब उनके स्वरूप को लक्ष्य में रखकर द्रव्य-गुण-पर्याय से विशेषरूप में विचार करते हैं। यह अरहन्त आत्मा है,' इस प्रकार द्रव्य को जान लिया। ज्ञान को धारण करनेवाला जो सदा रहनेवाला द्रव्य है, सो वही आत्मा है। इस प्रकार अरहन्त के साथ आत्मा की सदृश्यता बतायी है। चेतन द्रव्य, आत्मा है। आत्मा चैतन्यस्वरूप है, चैतन्य गुण आत्मद्रव्य के आश्रित है, सदा स्थिर रहनेवाले आत्मद्रव्य के आश्रय से ज्ञान रहता है, द्रव्य के आश्रय से रहनेवाला होने से ज्ञान गुण है। अरहन्त के गुण को देखकर यह निश्चय करता है कि स्वयं अपने आत्मा के गुण कैसे हैं; जैसा अरहन्त का स्वभाव है, वैसा ही मेरा स्वभाव है।
द्रव्य-गुण त्रैकालिक हैं, उसके प्रतिक्षणवर्ती जो भेद हैं, सो पर्यायें हैं । पर्याय की मर्यादा एक समयमात्र की है। एक ही समय की मर्यादा होती है; इसलिए दो पर्यायें कभी एकत्रित नहीं होती।
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