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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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को मुख में डाला जाये वह), सहसात्कार ( अपने आप ही अचानक मुख में कोई चीज प्रवेश करे वह), पच्छन्नकाल (मेघबादल आदिसे घिरे समय काल का पता न चलना), दिग्मोह ( दिशाका भ्रम होना), साधु- वचन ( बहुपडिपुन्ना पोरिस् ́ि ऐसा पात्रा पडिलेहण के वक्त साधु भगवंत का वचन सुनने से पच्चक्खाण आ गया है, ऐसा समझ गये हो) महत्तराकार (बडी कर्मनिर्जराकी वजह आना वह) एवं सर्व-समाधि- आगार (किसी भी तरीके से समाधि नहीं ही रहती तब ) ईन छह आगारों का (छूट) को रखकर त्याग करते है (करता हूँ) ।
पोरिसि-साढपोरिसि-पुरिमड्ड एवं अवड्ढ पच्चक्खाण पारवानुं सूत्र अर्थ सहित उग्गए सूरे पोरिसिं, साड्डपोरिसिं, सूरे उग्गओ पुरिमङ्कं, अव मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाण कर्तुं चोविहार, पच्चकखाण फासिअं,
पालिअं, सोहिअं, तीरिअं किहिअं, आराहिअं,
जं च न आराहिअं तस्स मिच्छा मि दुक्कडं .
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अर्थ- सूर्योदय के पश्चात् पोरिसि, साढपोरिसि, पुरिमड, अवड मुट्ठिसहित (जो पच्चकखाण किया हो उसे ही बोलना ) पच्चक्खाणमें चारो तरह के आहारका त्याग किया है । यह पच्चक्खाण को मैंने स्पर्शा (विधि के द्वारा उचित समय पर जो पच्चक्खाण लीया गया है वह) है, पालन किया (किये हुए पच्चक्खाण का बार-बार स्मरण करना वह) है, शोभायमान