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घुमाकर पीठ के उपरी हिस्से की प्रमार्जना करते मनमें बोलो... ४१- क्रोध, ४२- मान परिहएं। चित्र नं - १२ (महिलाएं यह बोल नहीं बोलती)
७) इस तरह दोनो हाथोंमें मुहपत्ति रखकर बाये कंधे परसे प्रमार्जना करते मनमें बोलो... ४३- माया, ४४- लोभ परिहरुं.चित्र नं - १३ (महिलाएं यह बोल नहीं बोलती)
(इस तरह पीठ एवं कंधे की ४ प्रमार्जना हुई। इन चार पडिलेहना को र कंधे एवं २ पीठकी पडिलेहना मानने का व्यवहार प्रचलित है।)
उसके बाद चरवला (ओघा) से बाये पैरके मध्य भाग (बीच में) एवं बाये-दाये भागमें तीन जगह पर प्रमार्जना करते हुए अनुक्रमसे मनमें बोले कि.... (पू. साधु-साध्वीजी भगवंत ‘रक्षा क' बोलो) ४५- पृथ्वीकाय, ४६- अप्काय, ४७- तेउकायकी जयणा करुं । (रक्षा करे) चित्र नं - १४
तत्पश्चात् चरवाले (ओघा) से दाये पैर के मध्य भाग (बीच में) एवं बाये-दाये हिस्से पर तीन जगह पर प्रमार्जना करते हुए अनुक्रमे से मनमें बोले कि.... ४८- वायुकाय, ४९वनस्पतिकाय, ५०- त्रसकायकी रक्षा करुं। चित्र नं - १५ ( मुहपत्ति + शरीर का पडिलेहण खास कर सुयोग्य अनुभवीके पाससे शीखने का प्रयत्न करें।)
द्वादशावत वंदनके २५ आवश्यक एवं उपलाक्षणिकता से मुहपत्ति और शरीरकी २५-२५ पडिलेहणा मन-वचन-काया स्वरुप तीनों करणसे आवश्यक होकर एवं कम ज्यादा मात्रा