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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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तत्पश्चात् हाव, भाव, विभ्रम और अंगहार करती हुई देवनर्तिकाओंसे वन्दन किये जाते हैं, ऐसे तीनों लोकके सर्व जीवोंको शान्ति करनेवाले, सर्व पाप और दोषसे रहित उत्तम जिन भगवान् श्री शान्तिनाथको मैं नमस्कार करता हूँ | (३०-३१)
श्री अजितनाथ प्रभु और श्री शांतिनाथ प्रभुकी स्तुति छत्त चामर पडाग जूअ जव मंडिआ, झयवर मगर तुरय सिरिवच्छ सु लंछणा।
दीव समुद्द मंदर दिसागय सोहिआ, सत्थिअ वसह सीह रह चक्क वरंकिया । (३२) ललिअयं
सहाव लट्ठा, सम प्पइट्ठा, अदोस दुट्टा, गुणेहिं जिट्ठा । पसाय-सिहा, तवेण पुठ्ठा, सिरीहिं इट्टा रिसीहिं जुट्ठा । (३३) वाणवासिआ
ते तवेण धुअ सव्व पावया,
सव्वलोअ हिअ मूल पावया । संथुआ अजिअ संति पायया, हुं तु मे सिव सुहाण
दायया । (३४) अपरांतिका जो छत्र, चामर, पताका, स्तम्भ, जव, श्रेष्ठ ध्वज, मगर, अश्व, श्रीवत्स, द्वीप, समुद्र, मन्दर पर्वत और ऐरावत हाथी आदिके शुभ लक्षणोंसे शोभित हैं, जो स्वरूपसे सुन्दर, समभावमें स्थिर, दोष-रहित, गुण-श्रेष्ठ, बहुत तप करनेवाले, लक्ष्मीसे पूजित, ऋषियोंसे सेवित, तपके द्वारा सर्व पापोंको दूर करनेवाले और समग्र प्राणि-समूहको हितका मार्ग दिखानेवाले हैं, वे अच्छी तरह