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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
ऊर्ध्वलोक मे (देवलोक), अधोलोक मे (भवनपति-व्यंतरादि के निवास) व मनुष्यलोक मे (तिmलोक-मध्यलोक) जितने भी जिनबिंब हो, वहाँ रहे हुए उन सबको, यहाँ रहता हुआ मैं, वंदन करता हूँ | (४४)
(सर्व साधु वंदन) जावंत केवि साहू, भरहेर वय महाविदेहे अ सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड विरयाणं | (४५) ५-भरत, ५- औरावत व ५- महाविदेह में स्थित, मन-वचन और काया से पाप प्रवृत्ति नहीं करते , नहीं कराते और करते हुए का अनुमोदन भी नहीं करते ऐसे जितने भी साधु भगवंत हों उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ | (४५)
(शुभ भावकी प्रार्थना) चिर संचिय पाव पणासणीइ,
भव सय सहस्स महणीए चउवीस जिण विणिग्गय कहाइ,
वोलंतु मे दिअहा । (४६) दीर्घकाल से संचित पापों का नाश करनेवाली, लाखो भव का क्षय करने वाली जैसी चौबीस जिनेश्वरों के मुख से निकली हुई धर्मकथाओं (देशना) के स्वाध्याय से, मेरे दिवस व्यतीत हो | (४६) मम मंगल मरिहंता, सिद्धा साहू सुअं च धम्मो अ
सम्म दिहि देवा, किंतु समाहिं च बोहिं च | (४७) अरिहंत भगवंत, सिद्ध भगवंत, साधु भगवंत, द्वादशांगी रूप श्रूतज्ञान व चारित्रधर्म मुझे मंगल रूप हो, वे सब तथा