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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
१८१ कार्य | ६) दन्त वाणिज्य-हाथीदांत, पशु-पक्षी के अंगोपांग से तैयार हुई वस्तुओं को बेचना । ७) लाक्ष वाणिज्य-लाख, नील, साबु, हरताल आदि का व्यापार करना । ८) रस-वाणिज्यमहाविगइ तथा दूध, दही, घी, तैलादि का व्यापार | ९) केशवाणिज्य- मोर, पोपट, गाय, घोडा, घेटा विगेरेके केशका व्यापार | १०) विषवाणिज्य-जहर और जहरीले पदार्थों तथा हिंसक शस्त्रों का व्यापार |११) यंत्रपीलनकर्म अनेकविध यन्त्र चक्की, घाणी आदि चलाना, अन्न तथा बीज पीसने का कार्य | १२) निल्छनकर्म-पशुओं का नाक-कान छेदना, काटना,
आँकना, डाम लगाना व गलाने का कार्य । १३) दवदानकर्मजंगलों को जलाकर कोयले बनाना | १४) जलशोषण कर्मसरोवर, कुआँ, स्त्रोत तथा तालाबादि को सुखाने का कार्य । १५) असतीपोषणकर्म-कुल्टा आदि व्यभिचारी स्त्रीयाँ तथा पशुओं के खेल करवाना, बेचना, हिंसक पशुओं के पोषण का कार्य । ये सब अतिहिंसक और अतिक्रूर कार्यों का अवश्यमेव त्याग करना चाहिए | (२२,२३)
(अनर्थ विरमण व्रतके अतिचार) सत्थग्गि मुसल जंतग, तण कढे मंत मूल भेसज्जे; दिन्ने दवाविए वा, पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (२४) अनर्थदंड गुणव्रत चार प्रकार के है-अपध्यान, पापोपदेश, हिंस्रप्रदान व प्रमादाचरण | इनमें से हिंस्रप्रदान व प्रमादाचरण अति सावध होने से उसका स्वरूप दो गाथा द्वारा बताते हैं | प्रथमहिंस्रप्रदान-शस्त्र, अग्नि, मुसल, हल, चक्की आदि यंत्र, अनेक प्रकार के तृण, काष्ठ, तथा मंत्र, मूल (जडीबुट्टी) और औषधि के