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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
पायच्छितं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ; झाणं उस्सग्गो वि अ, अब्मिंतरओ तवो होइ अणिगूहिअ बल वीरिओ, परक्कमइ जो जहुत्त माउत्तो;
जुंजइ अ जहाथामं, नायव्वो वीरिआयारो
(न)
(८)
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य संबंधी आचरण आचार है। इस तरह यह (आचार) पाँच प्रकार का कहा गया है । (१) काल, विनय, बहुमान, उपधान, अनिह्नवता ( गुरुको न पहचानना), व्यंजन, अर्थ और इन दोनों संबंधित तदुभय ये आठ प्रकार का ज्ञानाचार है । (२)
निःशंकता, निष्कांक्षता, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टिता, प्रशंसा, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ प्रकार का ( दर्शनाचार) है । (३) चित्त की समाधि पूर्वक पाँच समिति और तीन गुप्तियों (का पालन) यह आठ प्रकार का चारित्राचार जानने योग्य है । (४) बारह प्रकार का अभ्यंतर और बाह्य तप जिनेश्वरों द्वारा कथित है, ग्लानिरहित और आजीविका के हेतु रहित वह तपाचार जानने योग्य है । (५)
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उपवास, ऊनोदरता, वृत्ति संक्षेप, रस त्याग, काय क्लेश और संकोचन (संलीनता) यह बाह्य तप है । (६)
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान, और उत्सर्ग ये अभ्यंतर तप है । (७)
बल और वीर्य को न छिपाते हुए यथोक्त पराक्रम करना और पालन करने में यथाशक्ति (अपनी आत्मा को ) जोड़ना - यह वीर्याचार जानने योग्य है । (c)