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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
मरुअ, मणंत, मक्खय, मव्वाबाह, मपुणरावित्ति, सिद्धिगइ नामधेयं, ठाणं,
संपत्ताणं, नमो जिणाणं जिअभयाणं (९) जे अ अइया सिद्धा, जे अ भविस्संति णागए काले,
संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि (१०) नमस्कार हो (८ प्रातिहार्यदि सत्कार के योग्य) अरिहंतो को, (उत्कृष्ट ऐश्वर्यादिमान) भगवंतों को, (इस सूत्र में प्रथम पद प्रत्येक विशेषण को लग सकता है, जैसे कि नमोत्थु णं अरिहंताणं, नमोत्थु णं भगवंताणं, नमोत्थु णं आइगराणं), (१) । धर्म (अपने अपने धर्मशासन) के आदिकर को, चतर्विध संघ (या प्रथम गणधर) के स्थापक को, (अन्तिम भव में गुरु बिना) स्वयंबुद्ध को (स्वयं बोध प्राप्त कर चारित्र-ग्रहण करनेवालों को), (२) जीवों में (परोपकार आदि गुणो से) उत्तम को, जीवों में सिंह जैसे को, (जो परिसह में धैर्य, कर्म के प्रति क्रुरता आदि शोर्यादि गणोसे युक्त), जीवों में श्रेष्ठ कमल समान को, (कर्मपंकभोगजल से निर्लेप रहने से), जीवों में श्रेष्ठ गंधहस्ती समान को (अतिवृष्टि आदि उपद्रव को दूर रखने), (३) सकल लोक में गजसमान, भव्यलोक में (विशिष्ट तथा भव्यत्व से) उत्तम, चरमावर्त प्राप्त जीवों के नाथ को (मार्ग का 'योग-क्षेम' संपादन-संरक्षण करने से), पंचास्तिकाय लोक के हितरुप को (यथार्थ-निरुपण से), प्रभुवचन से बोध पानेवाले संज्ञि लोगों के लिए प्रदीप (दिपक) स्वरुप को, उत्कृष्ट १४ पूर्वी गणधर लोगों
के संदेह दूर करने के लिए उत्कृष्ट प्रकाशकर को | (४) 'अभय'- चित्तस्वास्थ्य देनेवालों को, चक्षु' धर्मदृष्टि-धर्म आकर्षण उपचक्षु देनेवालों को, 'मार्ग' कर्मके क्षयोपशमरुप मार्ग