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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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गिरनार तीर्थके अधिपति नेमिनाथ प्रभुकी वंदना उज्जित सेल सिहरे, दिक्खा नाणं निसीहिया जस्स। तं धम्म चक्कवडिं, अरिहनेमिं नम॑सामि || (४)
अष्टापद, नंदिश्वर तीर्थोकी स्तुति चत्तारि अह दस दोय, वंदिया जिणवरा चउवीसं|
परमट्ट निहिअट्ठा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसन्तु।। (५) ८ कर्मों को जलानेवाले, सर्वज्ञ (केवलज्ञान पाये हुए), संसार सागरको पार किए हुए, गुणस्थानक क्रम की (या पूर्व सिद्धों की) परंपरा से पार गए, १४ राजलोक के अग्र भाग को प्राप्त, सर्व सिद्ध भगवंतो को मेरा हमेशा नमस्कार है । (१) जो देवताओं के भी देव हैं, जिनको अंजलि जोड़े हुए देव नमस्कार करते हैं, इन्द्रों से पूजित उन महावीर स्वामी को मैं सिर झुका कर वन्दन करता हूं | (२) जिनवरो (केवलज्ञानी) में प्रधान वर्धमान स्वामी को (सामर्थ्ययोग की कक्षाका किया गया ) एक नमस्कार भी संसारसमुद्र से पुरुष या स्त्री को तार देता है। (३) उज्जयन्त (गिरनार) गिरि के शिखर पर जिनकी दीक्षाकेवलज्ञान-निर्वाण हुए, उन धर्म-चक्रवर्ती श्री नेमनाथ स्वामी को मैं नमस्कार करता हूं | (४) (अष्टापद पर) ४-८-१०-२, (इस क्रम से) वंदन किए गए चौबीस जिनेश्वर भगवंत, परमार्थ से (वास्तव में) इष्ट पूर्ण हो गए हैं (कृतकृत्य) ऐसे सिद्ध भगवंत मुझे मोक्ष दें । (५)
प्रथमकी तीन गाथाए गणधर रचित है |अंतिम दो गाथाए पूर्वाचार्योकृत है ऐसी प्राचीन मान्यता है । मोक्षका आदर्श सतत मनमें रहे इसलिए सिध्ध भगवंतकी स्तुति करनी आवश्यक है ।