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________________ श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित मार्ग दिखानेवाले, 'शरण' -तत्त्वजिज्ञासा देनेवालों को, ‘बोधि' तत्त्वबोध (सम्यग्दर्शन) के दाता को । (५) चारित्रधर्म के दाता को, धर्म के उपदेशक को, (यह संसार जलते घर के मध्यभाग के समान है, धर्ममेघ ही वह आग बुझा सकता है...ऐसा उपदेश), धर्म के नायक (स्वयं धर्म करके औरों को धर्म की राह पर चलानेवालों) को, धर्म के सारथि को (जीव-स्वरुप अश्व को धर्म में दमन-पालन-प्रवर्तन करने से), चतुर्गतिअन्तकारी श्रेष्ठ धर्मचक्र वालों को। (६) अबाधित श्रेष्ठ (केवल) -ज्ञान-दर्शन धारण करनेवाले, छद्म (४ घातीकर्म) नष्ट करनेवाले । (७) राग-द्वेष को जीतनेवाले तथा दूसरोको जितानेवाले और अज्ञानसागर को तैरनेवाले तथा तैरानेवाले, पूर्णबोध पानेवाले तथा प्राप्त करानेवाले, मुक्त हुए तथा मुक्त करानेवाले। (८) सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, उपद्रवरहित, स्थिर, अरोग, अनंत (ज्ञानवाले) अक्षय,पीडारहित, अपुनरावृत्ति सिद्धिगति नाम के स्थान को प्राप्त, भयों के विजेता, जिनेश्वर भगवंतों को नमस्कार करता हूं | (९) जो (तीर्थंकरदेव) अतीत काल में सिद्ध हुए, व जो भविष्य काल में होंगे, एवं (जो) वर्तमान में विद्यमान हैं, (उन) सब को मनवचन-काया से वंदन करता हूं | (१०) यह सूत्र अरिहंत भगवंतोकी गुण स्मरणपूर्वक स्तवना है । इसमें परमात्माकी विविध विशेषताओंका नमस्कारपूर्वक वर्णन किया है । अंतिम गाथामें भूत-वर्तमान- और भाविके अरिहंतोको प्रणाम किया है । (चरवलावाले खडे होकर और बाकीके चूंटना नीचे करे और बोले)
SR No.007740
Book TitleSamvatsari Pratikraman Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIla Mehta
PublisherIla Mehta
Publication Year2015
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size28 MB
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