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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
ख्यातोष्टा पद पर्वतो गजपदः सम्मेत शैलाभिधः, श्रीमान् रैवतक : प्रसिद्धमहिमा शत्रुजयो मंडपः । वैभार : कनकाचलो-बुंद गिरि : श्री चित्र-कूटादय,
स्तत्र श्री ऋषभादयो जिनवरा:
कुर्वन्तु वो मंगलम् ।। (३३) प्रसिद्ध अष्टापद पर्वत, गजपद पर्वत अथवा दशार्णकूट पर्वत, सम्मेतशिखर, शोभावान् गिरनार पर्वत, प्रसिद्ध महिमावाला शत्रुजयगिरि, मांडवगढ़, वैभारगिरि, कनकाचल (सुवर्णगिरि), आबुपर्वत, श्रीचित्रकूट आदि तीर्थ हैं, वहाँ स्थित श्री ऋषभ आदि जिनेश्वरो तुम्हारा कल्याण करें। (३३)
यह 'सकलाईत महाकाव्यकी रचना महाराजा कुमारपालकी प्रार्थनासे की गई है। यह स्तोत्रका दूसरा, मूलनाम 'चतुर्विशति-जिन-नमस्कार' है। यह सूत्र 'बृहच्चैत्यवंदन' के नामसे भी प्रख्यात है क्योंकि पाक्षिक, चउमासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणमें बडें चैत्यवंदनका उपयोग होता है। इस सूत्रकी ३३ गाथाओंमें अर्हदेवोके अद्भूत गुणोका वर्णन किया गया है। और उनकी उपासना तथा आराधनाकी सार्थकता बताई गई है।
स्वर्ग, पाताल और मनुष्यलोकमें रहे सर्व तीर्थो और उसमें रही हुई प्रतिमाओको वंदना
जं किंचि नामतित्थं, । सग्गे पायालि माणुसे लोए ।
जाई जिण बिम्बाई,
ताई सव्वाई वंदामि || (१) । स्वर्ग, पाताल (एवं) मनुष्यलोक में जो भी कोई तीर्थ है, (या वहां) जितने जिनबिम्ब है, उन सब को मैं वंदना करता हूं | (१)