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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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यदुवंश समुन्द्रेन्दु :, कर्म कक्ष हुताशनः । अरिष्टनेमिभगवान्, भूयाद् वोरिष्ट नाशनः ।। (२४) नमस्कार करनेवालोंके मस्तक पर गिरते हुए जलके प्रवाहकी तरह निर्मल करनेमें कारणभूत, ऐसी श्री नमिनाथ प्रभुके चरणोंके नखकी किरणें तुम्हारा रक्षण करें |(२३) यदुवंशरूपी समुद्र में चन्द्र तथा कर्मरूपी वनको जलानेमें अग्निसमान श्री अरिष्टनेमि भगवान् तुम्हारे अमंगलका नाश करनेवाले हों | (२४)
कमठे धरणेन्द्रे च, स्वोचितं कर्म कुर्वति | प्रभुस्तुल्य मनोवृत्तिः, पार्श्वनाथ: श्रियेस्तु वः || (२५) श्रीमते वीर नाथाय, सनाथायाद् भूत श्रिया ।
महानंद सरोराज मरालाया र्हते नमः ।। (२६) अपने लिए उचित ऐसा कृत्य करनेवाले, कमठ-असुर और धरणेन्द्र-देव पर समानभाव धारण करनेवाले श्री पार्श्वनाथ प्रभु तुम्हारी आत्म लक्ष्मीके लिये हो | (२५) परमानन्दरूपी सरोवरमें राजहंस स्वरूप (समान) तथा अलौकिक लक्ष्मीसे युक्त ऐसे पूज्य श्री महावीरस्वामी को नमस्कार हो |(२६)
कृता पराधेपि जने, कृपा मंथर तारयोः । ईषद् बाष्पाईयो-भद्रं, श्री वीरजिन नेत्रयोः ।। (२७)
जयति विजितान्य तेजाः,