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Lord Śreyānsanātha
सामान्यार्थ - आपके दर्शन में स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा अस्तिपना तथा परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा नास्तिपना, ऐसा जो पदार्थों का अस्ति-नास्तिरूप एक काल में झलकने वाला ज्ञान है सो प्रमाण का विषय होने से प्रमाण कहलाता है। इन दोनों अस्ति व नास्ति धर्मों में से किसी एक को वक्ता के अभिप्राय से मुख्य करने वाला और दूसरे को गौण करने वाला एकदेश अथवा एक ही स्वभाव को कहने वाला नय है। वह नय इन अस्ति व नास्ति दोनों धर्मों में से किसी एक को मुख्य करके बताने के नियम का साधक है। और वह नय दृष्टान्त का समर्थन करने वाला होता है अर्थात् जो धर्म वक्ता व्यक्त करना चाहता है उसका स्वरूप ठीक-ठीक दर्शाने वाला होता है।
O Lord Śreyānsanātha! Your doctrine of conditional affirmative predication* and conditional negative predication** constitutes valid knowledge (pramāņa). The speaker at any moment considers one particular attribute, the primary attribute, but does not deny the existence of other attributes, the secondary attributes. Partial knowledge from a particular point of view, under consideration, is the object of naya*** and it helps in the accuracy of expression through illustration (drstānta).
*With reference to own substance (dravya), space of its
existence (kşetra), time of its existence (kāla), and its nature (bhāva) - svacatustaya.
**With reference to other substance (paradravya), other space
(parakşetra), other time (parakāla), and other nature (parabhāva) - paracatustaya.
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