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Svayambhūstotra
night, engrossed energetically in the task of purging your soul of the karmic mire.
अपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान् पुनर्जन्मजराजिहासया त्रयीं प्रवृत्तिं समधीरवारुणत् ॥
(10-4-49) सामान्यार्थ कितने ही आत्मश्रद्वान रहित प्राणी ( व्रतीजन) पुत्रादि, धनादि व परलोक के सुख की तृष्णा से पीड़ित होकर अग्निहोम आदि कर्म करते हैं परन्तु आप शान्त बुद्धि रखने वाले वीतरागी ने तो अनादि काल से चले आ रहे जन्म और जरा को दूर करने के उद्देश्य से मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को रोक दिया और मात्र स्वात्मानुभव-रूप अभेद रत्नत्रय में तन्मय हो गए।
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Many mendicants perform austerities with the desire for worldly gains like the son, the wealth, and the happiness in this life and beyond, but you, O Lord, with right knowledge and desire to attain freedom from births and old-age, controlled the three-fold yoga (the activities of the mind, the speech, and the body).
त्वमुत्तमज्योतिरजः क्व निर्वृतः क्व ते परे बुद्धिलवोद्धवक्षताः । ततः स्वनिःश्रेयसभावनापरैर्बुधप्रवेकैर्जिन शीतलेड्यसे ॥
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(10-5-50)