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Lord Śītalanātha
सामान्यार्थ - जैसे कोई वैद्य मन्त्रों के उच्चारण व जपन के गुणों के द्वारा सर्प के विष की दाह से मूर्छा को प्राप्त अपने शरीर को विष-रहित कर देता है, वैसे ही हे भगवन् ! आपने इन्द्रिय-विषय सुख की तृष्णा रूपी अग्नि से मोहित अपने मन को आत्मज्ञानमई अमृत रूपी जल से शान्त कर दिया था।
As the knowledgeable healer rids his body of the effect of the poison through incantation (chanting of the mantras), O Lord Šītalanātha, you had also provided succour to your heart, infatuated by the fire of worldly desires, with the nectar-like cool water of the knowledge of the Self.
स्वजीविते कामसुखे च तृष्णया दिवा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजाः । त्वमार्य नक्तंदिवमप्रमत्तवानजागरेवात्मविशुद्धवर्त्मनि ॥
(10-3-48) सामान्यार्थ - जगत् के साधारण प्रजाजन अपने इस जीवन को बनाए रखने की और इन्द्रियों के सुख भोगने की तृष्णा से पीड़ित होकर दिन में तो नाना प्रकार के श्रम करके थक जाते हैं व रात्रि होने पर सो जाते हैं। परन्तु हे श्री शीतलनाथ तीर्थङ्कर ! आप तो रात-दिन प्रमाद-रहित होकर आत्मा को विशुद्ध करने वाले मोक्ष-मार्ग में जागते ही रहे।
The people, due to infatuation with their lives and lust for sensual pleasures, toil during the day and fall asleep during the night, but O Lord Śītalanātha! you remained vigilant, day and
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