________________
(454 95 5 5 55595555 5 5 5 5 5 555 5 5 5 5 ! ! !5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5
फ्र
यतना से ऐसे स्थान पर तथा इस प्रकार परिष्ठापन करना अथवा डालना जिसमें 'किसी आने-जाने वाले को असुविधा या हानि न पहुॅचे।
गुप्ति - हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन व परिग्रह इन पापकर्मों के सेवन से मन, वचन एवं शरीर को संयत रखना गुप्ति कहलाता है।
(IV) तपाचार - इच्छाओं पर अंकुश लगाना तप है। विषय कषाय आदि दुर्विकारों से मन को हटाने के लिए और राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने के लिए उपायों से शरीर, इन्द्रिय और मन को तपाया जाता है, वे सभी उपाय तप हैं। इनके दो भेद हैं- (अ) बाह्य तप, और (ब) आभ्यन्तर तप ।
(अ) बाह्य तप- जो तप प्रकट रूप से किया जाये तथा जिसका मुख्य उद्देश्य आभ्यन्तर तप की पुष्टि करना हो वह बाह्य तप है। इसके छह प्रकार बताये हैं
(१) अनशन - भोजन आदि का त्याग। इस त्याग का उद्देश्य होता है - संयम की पुष्टि, राग का उच्छेद, कर्म का विनाश, और धर्मध्यान की वृद्धि ।
(२) ऊनोदरी - भूख से कम भोजन करना ।
(३) वृत्ति परिसंख्यान - चित्त वृत्ति पर विजय पाने तथा आसक्ति कम करने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव रूप अभिग्रह धारण करना अथवा सीमा के नियम ग्रहण करना । जैसे-एक दिन में एक ही घर से भिक्षा ग्रहण करूँगा, एक दिन में चार द्रव्य ही ग्रहण करूँगा आदि ।
(४) रस परित्याग - रुचिकर तथा शरीर की पुष्टि करने वाले रसों का परित्याग करना अथवा रसहीन या अस्वाद वस्तुओं को ग्रहण करना ।
(५) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता अथवा विविक्त शय्यासन - निर्बाध ब्रह्मचर्य का पालन तथा ध्यान में एकाग्रता वृद्धि के उद्देश्य से इन्द्रियों को सुखकर आसन व शय्या का त्याग करना। एक प्रकार से इन्द्रियों का संकोच ।
(६) कायक्लेश - शीत व उष्ण परीषह सहन करना, आतापना लेना आदि विविध प्रकारेण शरीर वृत्ति का संयम ।
( ब ) आभ्यन्तर तप - जिसमें मानसिक क्रिया की प्रधानता हो और जो बाह्य साधनों के अभाव
में सब पर प्रकट न हो ऐसा तप आभ्यन्तर तप होता है । ये भी ६ प्रकार के बताये हैं
(१) प्रायश्चित्त - प्रमादवश हुए पापों के प्रति पश्चात्ताप करते हुए पापों से निवृत्ति
करना।
(२) विनय - पूज्य जनों तथा उच्च चारित्र धारक महापुरुषों का विनय बहुमान करना ।
5 श्रुतज्ञान
फ
Jain Education International
( ३८१ )
For Private & Personal Use Only
(45 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5
Shrut-Jnana
5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 555 55 5555555€
www.jainelibrary.org