SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हाथ में लीं और भली प्रकार निरीक्षण किया। शालीन व्यक्ति की कंघी में ऊन के रेशे अटके थे और धूर्त की कंघी में सूत के। कंबल का रहस्य खुल गया। न्यायाधीश ने कंबल असली मालिक को दे दिया और धूर्त को पकड़कर दंड देने का आदेश दिया। ६. गिरगिट-एक बार एक व्यक्ति किसी जंगल से गुजर रहा था कि अचानक उसे शौच की हाजत हुई। जल्दी में वह धरती पर एक छेद देखकर उसी पर निवृत्त होने बैठ गया। वह छेद नहीं, एक गिरगिट का बिल था। जैसे ही वह व्यक्ति निवृत्त होने लगा-गिरगिट झपटकर अपने बिल में घुस गया। बिल में घुसते समय उस व्यक्ति के गुदा भाग से गिरगिट का स्पर्श हो गया। इससे उस व्यक्ति के मन में यह बात बैठ गई कि गिरगिट उसके पेट में समा गया है। उस दिन से उसे यही चिन्ता सताती रही और धीरे-धीरे वह बीमार हो गया। बहुत उपचार कराया किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ और वह दिनोंदिन दुर्बल होता चला गया। ___एक दिन वह एक बहुत अनुभवी वैद्य के पास पहुँचा। वैद्य ने नाडी-परीक्षा तथा अन्य साधनों से जॉच की किन्तु कोई बीमारी समझ में नहीं आई। इस पर वैद्यराज ने पूछा कि उसकी ऐसी स्थिति कब से चल रही है। उस व्यक्ति ने जंगल में शौच और गिरगिट के पेट में घुस जाने की बात बताई। वैद्य समझ गया कि यह मानसिक रूप से पीडित है। उसे तत्काल ही औत्पत्तिकी बुद्धि के सहारे उपाय सूझ गया। वैद्य ने उस समय तो रोगी से कहा-"यह एक गंभीर व्याधि है। मुझे गिरगिट निकालने की औषधि बनानी पडेगी। कल तुम्हारा इलाज हो जाएगा।" वैद्य ने एक मरा गिरगिट मॅगवाया और उस पर लाख लपेट एक बरतन में डाल दिया। यह बरतन उसने अपने निवास के बाहर एक अंधेरे कोने में रख दिया। दूसरे दिन रोगी को बुलाकर उसे तीव्र जुलाब दिया और जाकर उस बरतन में शौच करने को कहा। जब वह व्यक्ति निवृत्त हो चुका तब वैद्य ने वह बरतन प्रकाश में खींच लिया और शौच में पड़ा गिरगिट रोगी को दिखाकर कहा-“देखो, यही वह गिरगिट था न, जो इतने दिनों से तुम्हें पीड़ा दे रहा था। अब यह निकल गया है। अतः अब तुम्हें शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ होगा।" रोगी को बहुत संतोष हुआ और प्रसन्नता भी। मानसिक भ्रम दूर होते ही वह पुनः स्वस्थ हो गया। ७. काक-वेन्नातट नगर में भिक्षा हेतु घूमते एक बौद्ध भिक्षु को एक जैन श्रमण मिल गए। बौद्ध भिक्षु ने नीचा दिखाने के लिए जैन श्रमण से प्रश्न किया-“मुनिराज ! आपके अर्हत् सर्वज्ञ हैं और आप उनके अनुयायी, क्या आप एक छोटी-सी बात बता सकते हैं कि इस नगर में कितने कौवे हैं?" श्रमण ने भिक्षु के भोले प्रश्न के पीछे रही दुरभिसन्धि को भापकर तत्काल उत्तर दिया-"भंते ! यह भी कोई प्रश्न हुआ। इस नगर में साठ हजार दो सौ तिरपन कौवे हैं। 'आप गिनकर देख लें। यदि कम हैं तो कुछ अन्य नगरों में भ्रमण के लिए गए हैं और यदि अधिक हैं तो वे अन्य नगरों से आए कुछ अतिथि कौवे हैं।" जैन श्रमण की औत्पत्तिकी बुद्धि से लज्जित हो बौद्ध भिक्षु आगे बढ़ गए। मतिज्ञान (औत्पत्तिकी बुद्धि) Mati-jnana (Autpattiki Buddhi) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007652
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1998
Total Pages542
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_nandisutra
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy