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mnnnnnnnnnnnn NSPETENTS * अरिहन्त भगवान और सिद्ध भगवान में केवलज्ञान समान होने पर भी उसके दो भेद बताये 卐 हैं। आयुपूर्वक मनुष्य देह में अवस्थित केवलज्ञान को भवस्थ केवलज्ञान कहा जाता है। अर्थात्
जिसकी आयु पूर्ण होने से पूर्व केवलज्ञान उत्पन्न हो ऐसी शरीरस्थ आत्मा में उत्पन्न होने वाला ॐ ज्ञान भवस्थ केवलज्ञान है।
__ इसके भी दो भेद हैं-सयोगी और अयोगी। आत्मिक शक्ति अथवा चेतना आत्म-प्रदेशों को 卐 स्पन्दित करती है। यह स्पन्दन मन में और उसके माध्यम से शरीर में वचन तथा अन्य क्रियाओं
के रूप में अभिव्यक्त होता है, सक्रिय होता है। आत्मा और मन, वचन, काया के इस जुड़ाव को योग कहते हैं। आध्यात्मिक साधना के प्रथम से तेरहवें गुणस्थान तक यह योग विद्यमान रहता है। चौदहवें अथवा अन्तिम गुणस्थान पर इसका पूर्ण अभाव हो जाता है। बारहवें गुणस्थान पर वीतराग दशा तो उत्पन्न हो जाती है किन्तु तब तक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता। तेरहवें गुणस्थान
पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है और यहाँ योग विद्यमान रहता है इसलिए इसे सयोगी केवलज्ञान 卐 कहते हैं। चौदहवें गुणस्थान पर योग का अभाव है इसलिए इस स्तर के केवलज्ञान को अयोगी केवलज्ञान कहा जाता है।
इन दोनों के भी दो-दो भेद हैं। तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश के पहले समय में ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है इसे प्रथम समय सयोगी केवलज्ञान कहते हैं और इसके पश्चात अप्रथम समय म केवलज्ञान। अथवा जो तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में पहुँच गया है उसे चरम समय सयोगी
केवलज्ञान कहते हैं और इससे पूर्व अचरम समय सयोगी केवलज्ञान। म इसी प्रकार चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश के पहले समय में उत्पन्न हुए केवलज्ञान को प्रथम
समय अयोगी केवलज्ञान कहते हैं और इसके पश्चात् अप्रथम समय अयोगी केवलज्ञान। अथवा 卐 जो चौदहवें गुणस्थान के चरम समय में पहुँच गया है उसे चरम समय अयोगी केवलज्ञान कहते + हैं और इससे पूर्व अचरम समय अयोगी केवलज्ञान। चौदहवें गुणस्थान की अधिकतम स्थिति अ, ॐ इ, उ, ऋ, लु, इन पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतनी मात्र ही है। 卐 इस स्थिति को शैलेशी अवस्था भी कहते हैं। इसके पूर्ण होते ही सिद्ध गति प्राप्त हो जाती है। 5 Elaboration--The four Ghati-Karmas (Karmas that have a 4 vitiating effect upon the qualities of soul) act as veils on the soul. i
These are jnanavaraniya (that veils true knowledge), darshanavaraniya (that veils true perception), mohaniya (that
tempts soul towards fondness for things), and antaraya (that acts as 4 an impediment to a man's pursuits including realisation of his 56 ॐ human, moral and spiritual goals). The state where all these are 卐 o completely destroyed and consequently the soul becomes absolutely $ + refined, pure, radiant and acquires infinite knowledge and
perception, is known as Kewal-jnana (omniscience). Once attained, श्री नन्दीसूत्र
( १३० )
Shri Nandisutra 44444444414141)))))))
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