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पाटलिपुत्र में श्री भद्रबाहु स्वामी की अध्यक्षता में प्रथम आगम वाचना हुई। दूसरी वाचना मथुरा के 4 में आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में तथा वल्लभी में आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में वीर निर्वाण सं .
८३0 के पश्चात् हुई और भगवान के निर्वाण से एक हजार वर्ष (९८०) वर्ष पश्चात् वल्लभी
(सौराष्ट्र) में पुनः आचार्य श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में तीसरी वाचना सम्पन्न हुई। म आचार्य श्री देवर्द्धिगणि का ही देववाचक नाम प्रसिद्ध है। इस प्रकार भगवान महावीर के एक
हजार वर्ष पश्चात् अर्थात् ईस्वी चौथी शताब्दी में इस नन्दीसूत्र को सूत्र रूप में मान्यता प्राप्त हुई है ॐ ऐसा जैन इतिहासकार मानते हैं।
___ ज्ञान आत्मा का मूल गुण है। आत्मा स्वभाव से अनन्त ज्ञानमय है, किन्तु ज्ञानावरण कर्म के म आवरणों से उसकी ज्ञान-शक्ति दबी हुई है। जैसे-जैसे ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है ज्ञान :
का प्रकाश प्रगट होता जाता है। सामान्यतः मतिज्ञान और श्रुतज्ञान आंशिक रूप में सभी प्राणियों में विद्यमान रहता है। अवधिज्ञान विशेष क्षयोपशम से तथा कुछ क्षेत्र-विशेष के प्रभाव से होता है है। मनःपर्यवज्ञान विशेष साधना की उपलब्धि है और केवलज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के सम्पूर्ण
क्षय का परिणाम है। आगमों में इन पाँच ज्ञानों का पृथक्-पृथक् वर्णन मिलता है। यह पाँच ज्ञान है की वर्णन-शैली सबसे प्राचीन है।
इसके पश्चात् ज्ञान का वर्णन दो प्रकार से किया गया है-प्रत्यक्ष ज्ञान और परोक्ष ज्ञान। मति # व श्रुत परोक्ष माने गये हैं तथा अन्तिम तीन ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाते हैं।
नन्दीसूत्र में इन दोनों शैलियों में ज्ञान का वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् न्याय-युग में म ज्ञान का वर्णन अन्य शैलियों से भी किया गया है। जिसमें इन्द्रिय ज्ञान को भी प्रत्यक्ष मान लिया है गया था। परन्तु यह शैली नन्दीसूत्र की रचना के पश्चात्वी काल की है।
नन्दीसूत्र में एक महत्त्वपूर्ण विभाजन भी है-सम्यक् श्रुत और मिथ्या श्रुत के रूप में। इसमें है एक बड़ी ही समन्वयवादी और व्यापक विचारधारा का दर्शन होता है। कहा गया है-ज्ञान तो # वास्तव में सम्यक् ही होता है और उसका स्वभाव प्रकाश करना है। किन्तु पात्र की दृष्टि, 卐
धारणा, उद्देश्य और मनोवृत्ति के अनुसार वह सम्यक् भी हो जाता है और मिथ्या भी। जिसकी दृष्टि सम्यक् है उसके लिए संसार के सभी शास्त्र, सम्यक् श्रुत हैं, उपकारक हैं। जिसकी दृष्टि मिथ्या है उसके लिए सभी शास्त्र मिथ्याश्रुत हैं। जैन-परम्परा की यह मौलिक धारणा है और इसमें अनेकान्त मूलक अनाग्रह बुद्धि का प्रत्यक्ष प्रभाव है। जो वस्तु सज्जन के पास रहने से उपकारक बन जाती है वही दुर्जन के पास जाने से अपकारक। इसलिए हमें ज्ञान का अभ्यास करते समय सर्वप्रथम अपनी दृष्टि को सम्यक्, विशुद्ध और आत्मलक्षी बनाना चाहिए। यदि आपकी दृष्टि सत्यलक्षी है, अनेकान्त-प्रधान है, तो आपके लिए संसार के सभी शास्त्र ज्ञान के स्रोत हैं। आनन्दकारी-मंगलकारी हैं।
नन्दीसूत्र का स्वाध्याय करते समय यही आत्मलक्षी दृष्टि रखें। अपनी धारणा शुद्ध रखें और 卐 गुणग्राही बनकर शास्त्र का स्वाध्याय करें तो अवश्य ही नन्दी-आनन्ददायी होगा।
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