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________________ O555555555555555 ୧୫ ମ 4 6 45 46 47 45 46 0 0 45 46 47 5 ! 4 5 6 45 46 4 45 46 46 6 6 45 46 45 46 45 46 457 45 46 47 4 5 6 7 47 4 फ्र द्रव्य-जैन अवधारणा में पदार्थ को बहुत सूक्ष्म दृष्टि से देखा है । पदार्थ के संघटकों के रूप में स्कन्ध और स्कन्ध के संघटकों के रूप में परमाणुओं और उनके विभिन्न गुण-पर्यायों को परिभाषित किया है। साथ ही इस आकाश-मण्डल से भी विस्तीर्ण लोक- अलोक को परिभाषित किया है। क्षेत्र- लोक 'के मध्य भाग में स्थित आकाश के आठ रुचक प्रदेशों को केन्द्र मानकर छह दिशाएँ और चार विदिशाएँ समस्त आकाश को विभाजित करती हैं। इस मध्य क्षेत्र में स्थित अढाई द्वीप और दो समुद्र हैं। इस कुण्डलाकार क्षेत्र को समय क्षेत्र भी कहते हैं। इसकी लम्बाई-चौड़ाई ४५ लाख योजन की है। यहाँ तक मनुष्यों का आवास क्षेत्र है। काल-जैन अवधारणा में काल को भी बहुत सूक्ष्म और व्यापक रूप से परिभाषित किया है। सबसे छोटी इकाई को समय कहा है जो एक क्षण का असंख्यातवाँ भाग है। व्यापक इकाइयाँ पल्योपम, सागरोपम आदि कल्पनातीत काल है। काल के सामान्य तीन विभाजन - भूत, वर्तमान, 5 भविष्य में सभी को इन सूक्ष्म व्यापक इकाइयों से विभाजित कर परिभाषित किया गया है। मनः पर्यवज्ञानी वर्तमान की मनःपर्यायों को तो जानता ही है, अतीत तथा भविष्यत् काल के पल्योपम के असंख्यातवें कालपर्यन्त मनःपर्यायों को भी भलीभाँति जानता / देखता है। फ्र भाव - आत्मा और शरीर के बीच का सेतु मन है। जैन अवधारणा में मन की रचना मनोवर्गणा के आठ सूक्ष्म पुद्गलों से होती है । मन के संकल्प-विकल्प, क्रिया, परिणाम आदि से बनी, आत्मा तथा पुद्गल के बीच की क्रिया प्रणाली जिनसे संचालित होती है उन्हें भाव कहते हैं । आत्मा की क्रियाएँ वर्णनातीत हैं। वे जब चिन्तन अथवा संकल्प - विकल्प के परिणामस्वरूप मनोवर्गणा के पुद्गलों में परिवर्तन लाती हैं तब वे भाव रूप में उपस्थित होती हैं - यही मनः पर्यवज्ञानी का विषय है। भावों के सतत परिवर्तनशील रूपों को पर्याय कहते हैं। अवधिज्ञान तथा मनः पर्यवज्ञान में अन्तर - (१) मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान की तुलना में अधिक विशुद्ध होता है । (२) अवधिज्ञान का विषय-क्षेत्र तीनों लोक हैं। मनः पर्यवज्ञान का विषय केवल पर्याप्त संज्ञी जीवों की मानसिक क्रियाऍ (मन के भाव ) हैं । (३) अवधिज्ञानी चारों गतियों में होते हैं। मनः पर्यवज्ञानी केवल लब्धि-सम्पन्न संयत ही होते हैं। (४) अवधिज्ञान का विषय कुछ पर्याय सहित रूपी द्रव्य है । मनःपर्यवज्ञान का विषय उससे अनन्तवाँ भाग सूक्ष्म है। (५) अवधिज्ञान मिथ्यात्व के उदय से विभंगज्ञान (विकृत ज्ञान ) के रूप में परिणत हो सकता है । मनः पर्यवज्ञान हो जाने के पश्चात्त् मिथ्यात्व का उदय ही नहीं होता । (६) अवधिज्ञान अगले भव में भी जा सकता है। मनः:पर्ययज्ञान मात्र उसी भव तक रहता है, जैसे - संयम और तप । श्री नन्दीसूत्र 5 @फ्र Jain Education International ( १२४ ) For Private & Personal Use Only Shri Nandisutra 44 55 56 57 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 www.jainelibrary.org
SR No.007652
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorAmarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1998
Total Pages542
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_nandisutra
File Size19 MB
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