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• जिनरक्षित का अंग-भंग
सूत्र ५१ : तए णं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुणं जिणरक्खियं सकलुसा सेलगपिट्ठाहि उवयंतं 'दास ! मओसि' त्ति जंपमाणी, अप्पत्तं सागरसलिलं, गेण्हिय बाहाहिं आरसंतं उड्ढं उव्वह अंबरतले ओवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पल-गवल-अयसिप्पगासेण असिवरेण खंडाखंडिं करेइ, करित्ता तत्थ विलवमाणं तस्स य सरसवहियस्स घेत्तूण अंगमंगाई सरुहिराई उक्खित्तबलिं चउद्दिसिं करेइ सा पंजली पहिट्ठा ।
सूत्र ५१ : वह निर्दय और पापिनी देवी दयनीय जिनरक्षित को शैलक की पीठ से गिरते 'देखकर बोली - " हे दास ! तू मरा !” और समुद्र के जल तक पहुँचने से पहले ही चिल्लाते जिनरक्षित को दोनों हाथों से पकडकर ऊपर उछाल दिया। जब वह वापस नीचे गिरने लगा तो उसे तलवार की नोंक पर झेल लिया । श्याम रंग की उस श्रेष्ठ तलवार से उसने रोते हुए जिनरक्षित के टुकडे टुकडे कर डाले। अभिमान से भरी देवी ने जिनरक्षित के रक्त से सने अंगोपांगों को अंजली में ले लिया और प्रसन्न चित्त हो देवताओं के निमित्त उछाली बलि की तरह चारों दिशाओं में फेंक दिया।
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
DISMEMBERING OF JINARAKSHIT
51. The cruel she-devil saw helpless Jinarakshit falling from the back of Shailak Yaksh and uttered, "Slave! This is your doom!" Before Jinarakshit could reach the surface of the sea she caught hold of his hands and tossed him in the sky. When he again fell she took him on the edge of her sword. With the blue sword she sliced wailing Jinarakshit into pieces. Filled with the ego of her power the evil goddess took the pieces of the body of Jinarakshit in her hands and happily threw them in all direction as is done with the offerings to the gods.
सूत्र ५२ : एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सर कामभोगे आसायइ, पत्थयइ, पीहेइ, अभिलसइ, सेणं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं जाव संसारं अणुरिट्टिस्, जहा वा से जिणरक्खिए ।
छलिओ अवयक्खतो, निरावयक्खो गओ अविग्घेणं । तम्हा पवयणसारे, निरावयक्खेण भवियव्वं ॥१ ॥ भोगे अवयक्खता, पडंति संसार - सायरे घोरे । भोगेहिं निरवयक्खा, तरंति संसारकंतारं ॥ २ ॥
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JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA
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