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________________ SITOUTUS ( १८४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र र सूत्र ३७ : तए णं से जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-‘एवं खलु अहं 5 र देवाणुप्पिया ! तव धूयं भद्दाए अत्तियं सूमालियं सागरदत्तस्स भारियत्ताए वरेमि। जइ णं जाणह 15 देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो, ता दिज्जउ णं सूमालिया र सागरस्स। तए णं देवाणुप्पिया ! किं दलयामो सुकं सूमालियाए ? 15 सूत्र ३७ : जिनदत्त ने उत्तर दिया-“देवानुप्रिय ! मैं आपकी पुत्री तथा भद्रा देवी की आत्मजा द र सुकुमालिका का हाथ अपने पुत्र सागरदत्त के लिए माँगता हूँ। यदि आप इस प्रस्ताव को उचित, प्राप्य और श्लाघनीय तथा इस संयोग को समान समझें तो सुकुमालिका मेरे पुत्र सागरदत्त को 15 दीजिये! यदि आप इस संयोग को इष्ट समझते हैं तो बतायें कि इसके लिए क्या शुल्क (कन्या हेतु द र वस्त्र-आभूषण या अन्य शर्ते) दिया जाय?'' 5 37. Jindatt replied, “Beloved of gods! I have come to ask for the hand of 5 your daughter Sukumalika in marriage for my son Sagardatt. If you feel that > the match is seemly, appropriate, desirable, commendable and worth a union, 2 please tell me the desired dowry." 15 सूत्र ३८ : तए णं से सागरदत्ते तं जिणदत्तं एवं वयासी-‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! से र सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्टा जाव किमंग पुण पासणयाए ? तं नो खलु अहं र इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं। तं जइ णं देवाणुप्पिया ! सागरदारए मम 5 घरजामाउए भवइ, तो णं अहं सागरस्स सूमालियं दलयामि।' र सूत्र ३८ : सागरदत्त ने कहा-“देवानुप्रिय ! सुकुमालिका हमारी एकमात्र संतान है और हमें 15 प्रिय है। उसका नाम सुनने मात्र से हमें हर्ष होता है तो देखने की तो बात ही क्या है। अतः मैं क्षण टा र भर के लिए भी उसका वियोग नहीं चाहता। देवानुप्रिय ! यदि सागर हमारा घर-जंवाई बन जाए तो डा र मैं उसे सुकुमालिका दे सकता हूँ।" 5 38. Sagardatt said, “Beloved of gods! Sukumalika is our only and beloved डा 2 child. Just to hear her name is a pleasure, to say nothing of seeing her. As 2 such I cannot think of separation from her even for a moment. Beloved of gods! If Sagar consents to live with us I may marry Sukumalika to him." र प्रथम विवाह 15 सूत्र ३९ : तए णं जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव सए डा र गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरदारगं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'एवं खलु ! | 15 सागरदत्ते सत्थवाहे ममं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सूमालिया दारिया इट्ठा, तं चेव, तं दा 12 जइ णं सागरदत्तए मम घरजामाउए भवइ ता दलयामि।' 15 तए णं से सागरए दारए जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्टइ। 5 (184) JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SÜTRA'I Sinnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007651
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1997
Total Pages467
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_gyatadharmkatha
File Size13 MB
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