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संयम-अशुभ भाव व पापाचरण में प्रवृत्त इन्द्रिय एवं मन का निग्रह करना संयम है। हिंसा, असत्य आदि पाँच आस्रव द्वारों के सेवन से आत्मा को विरत करना (५), क्रोध आदि चार कषायों पर विजय (४), पाँच समितियों का पालन (५), तथा मन-वचन-काय (३) की अशुभ प्रवृत्तियों पर रोक लगाना सभी (१७ भेद) संयम में सम्मिलित हैं। ___ एक अन्य प्रकार से भी संयम के १७ भेद बताये हैं-पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, वनस्पतिकाय-संयम (५), द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पंचेन्द्रिय-संयम (४), अजीवकाय-संयम, प्रेक्षा-संयम, उत्प्रेक्षा-संयम, अपहृत्य-संयम, अप्रमार्जना-संयम, मनः-संयम, वचन-संयम और काय-संयम (८)
तप-कर्मों का क्षय कर आत्मा को विशुद्ध बनाने की क्रिया को तप कहा जाता है। विस्तार की दृष्टि से अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसत्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग; तप के ये बारह भेद बताये गये हैं। ____ अहिंसा के सूक्ष्म रूप का विस्तार संयम में तथा संयम के विविध रूपों का विधायक पक्ष तप. में प्रकट होता है। इस प्रकार तीनों में परस्पर एक शृंखला जुड़ी हुई है और इनका समवाय रूप है-धर्म।
धर्म-धर्म की व्याख्या बहुत सूक्ष्म और विस्तृत है। सामान्यतः वस्तु का स्वभाव धर्म कहा जाता है। जीव या आत्मा का स्वभाव है ऊर्ध्वगमन। आत्मा की विशुद्धि तथा उसके ऊर्ध्वगमन में जो सहायक होता है-वह है धर्म। अहिंसा, संयम एवं तप द्वारा आत्मा पापकर्मों का क्षय कर शुद्धि प्राप्त करता है, इसलिए यह तीनों धर्म के अंग हैं। प्राचीन व्याख्या के अनुसार दुर्गति में गिरते जीव को धारण कर जो उसकी रक्षा करता है, उसे धर्म कहा जाता है।२ ___ मंगल-जो शुभ और कल्याणकारी हो। आचार्यों ने मंगल के द्रव्यमंगल और भावमंगल के रूप में दो भेद बताये हैं। प्रतीक रूप में कलश, स्वस्तिक आदि अष्टमंगल तथा वस्तु रूप में दही, अक्षत, शंख, श्रीफल आदि द्रव्यमंगल हैं। आत्मा को सुख-शान्ति पहुँचाने वाला धर्म तत्त्व भावमंगल कहा गया है
धम्मो उ भाव मंगलमत्तो सिद्धि त्ति काऊणं। -नियुक्ति, गाथा ४४ (प्रथम श्लोक का भाव स्पष्ट समझने के लिए चित्र क्रमांक १ पर ध्यान देवें।)
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१. देखें दशवकालिकसूत्र आचार्यश्री आत्माराम जी महाराज, पृ. ५ २. दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः। _ -उद्धृत दशवै. आ. आत्माराम जी म., पृ. ४
श्री दशवैकालिक सूत्र : Shri Dashavaikalik Sutra
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