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दिगम्बर परम्परा में भी दशवैकालिक की प्राचीन मान्यता रही है। धवला, जयधवला आदि में दशवैकालिक का उल्लेख मिलता है।
नामकरण का प्रयोजन
दशवैकालिक नाम के पीछे एक प्राचीन घटना जुड़ी हुई है। भगवान महावीर निर्वाण के लगभग ७0 वें वर्ष मगध में नन्द साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी। इसी दशक में अर्थात् वीर निर्वाण के ७५ वें वर्ष (वि. पूर्व ३९५ वर्ष) में तृतीय पट्टधर आर्य प्रभव का स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् आर्य शय्यंभव उनके पट्टधर बने। आर्य शय्यंभव चौदह पूर्वधर श्रुतकेवली थे। उन्होंने अपने पुत्र - शिष्य मनक को अल्प समय में शास्त्रों का सार रूप ज्ञान प्रदान करने के लिए इस सूत्र की रचना की। इसके दस अध्ययन हैं तथा यह विकाल ( शास्त्र- स्वाध्याय के विहित काल से अतिरिक्त काल) में रचा गया। जिस कारण इसका नाम दश+ वैकालिक प्रसिद्ध हुआ ।
दशवैकालिकसूत्र स्वतन्त्र आगम नहीं होकर आगमों का निचोड़ अथवा संकलन है। जिसे शास्त्रीय भाषा में निर्यूहण कहा जाता है। कुछ आचार्यों की मान्यता है कि दृष्टिवाद के पूर्वों से इसका संकलन किया गया है। जैसे
आत्म-प्रवाद पूर्व से कर्म प्रवाद पूर्व से सत्य प्रवाद पूर्व से प्रत्याख्यान पूर्व से
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चौथा अध्ययन पाँचवा अध्ययन
सातवाँ अध्ययन
बाकी अध्ययन
आयप्पवाय पुव्वा निज्जूढा धम्मपन्नत्ती । कम्मप्पवाय पुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा । सच्चपवाय पुव्वा निज्जूढा होइ वक्कस्स । अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइय वत्थुओ ।
- आव. नि. १६-१७
दूसरी मान्यता के अनुसार इसका संकलन द्वादशांगी से किया गया है। इस सम्बन्ध में आचार्यसम्राट् श्री आत्माराम जी महाराज ने अपने विस्तृत अनुसंधान के साथ एक प्रामाणिक - अनुसंधान प्रस्तुत किया है। जैसे
१. प्रथम अध्ययन की रचना का आधार है अनुयोगद्वार सूत्र में श्रमण की १२ उपमाओं में एक उपमा है भ्रमर की। भ्रमर के दृष्टान्त से प्रथम अध्ययन में श्रमण की माधुकरी वृत्ति का वर्णन है।
२. द्वितीय अध्ययन का आधार है- उत्तराध्ययन सूत्र का २२ वाँ अध्ययन । इस अध्ययन गत विषय के साथ अनेक गाथाएँ भी मिलती-जुलती है।
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