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________________ ऊनोदरी तप के भी द्रव्य, भाव आदि की अपेक्षा से आगमों में कई भेद बताये गये हैं । ३. भिक्षाचरी तप यह तप साधु और साध्वियों के लिए है; क्योंकि उनकी सभी आवश्यकताएँ याचना से ही पूर्ण होती हैं। भोजन. वस्त्र आदि सभी अनिवार्य आवश्यक वस्तुएँ वे सद्गृहस्थ से याचना करके लाते हैं। इस नप को माधुकरी अथवा भ्रामरी वृत्ति एवं गोचरी भी कहा गया है। इसका भाव यह है कि जिस प्रकार मधुकर अथवा भ्रमर पुष्पों के अतिरिक्त रस को ही चूसते हैं, उन्हें कष्ट नहीं देते। इसी प्रकार श्रमण-श्रमणी भी कई घरों से थोड़ा-थोड़ा भोजन लेकर अपनी आवश्यकता पूरी कर लेते हैं। साथ ही जिस प्रकार गाय घास को जड़ से उखाड़कर नहीं खाती, ऊपर-ऊपर का भाग ही चरती है । उसी प्रकार साधु की भी वृत्ति होती है। गृहस्थ को कष्टित न कर साधु अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर लेता है । भिक्षाचरी तप के अनेक भेद और विधि-विधान आगमों में बताये गये हैं। गृहस्थों के लिए भिक्षाचरी तप के बदले में वृत्ति परिसंख्यान या वृत्ति संक्षेप तप बताया गया है। गृहस्थ साधक इस तप में अपनी मन-वचन-काया की, कषायों की वृत्ति आदि को संक्षिप्त / संकुचित करता हैं। ४. रस-परित्याग तप यह तप अस्वाद-वृत्ति की साधना है। भगवान महावीर ने औपपातिकसूत्र में इस तप की दो भूमिकाएँ बताई हैं- (१) रस को ग्रहण ही न करना, और ( २ ) अगृहीत रस पर राग न करना । रस- परित्याग तप में विकृतियों-दूध, दही, तेल, घी, गुड़ मिष्टान्न आदि का यथाशक्ति त्याग किया जाता है और जो भी खाद्य पदार्थ ग्रहण किये जाते हैं, साधक ( श्रमण - श्रमणी ) उनमें अस्वादहैं. स्वाद-मुग्ध नहीं होते। द-वृत्ति रखते ५. कायक्लेश तप कायक्लेश का अभिप्राय व्यर्थ ही काया (शरीर ) को कष्ट देना नहीं है अपितु विभिन्न आसनों से शरीर को अनुशासित करना है। इस तप का उद्देश्य है- शरीर इतना अनुशासित हो जाय कि एक आसन से स्थिर रह सके, जिससे ध्यान आदि में विघ्न न पड़े क्योंकि आसन की अस्थिरता से ध्यान प्रवाह में विक्षेप पड़ता है। इस तप में पद्मासन, अर्ध- पद्मासन, वीरासन आदि से शरीर को अनुशासित किया जाता है। साथ ही श्वासोच्छ्वास की गति को भी नियन्त्रित और नियमित किया जाता है। इस क्रिया को प्राणायाम भी कहा गया है। प्राणायाम से मन की चंचलता कम होती है और स्थिरता बढ़ती है। अतः मन और शरीर की स्थिरता में सहायक होने से ध्यान की पूर्व भूमिका तैयार करने के रूप में कायक्लेश तप का महत्त्व है। ६. प्रतिसंलीनता तप इस तप में श्रमण मन और इन्द्रियों की बहिर्मुखी वृत्तियों को मोड़कर अन्तर्मुखी बनाता है - आत्मा में लीन करता है। अन्तकृद्दशा महिमा Jain Education International For Private Personal Use Only ३५३ www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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