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________________ इसके चार उत्तरभेद हैं(१) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता-इन्द्रियों को अन्तर्मुखी बनाकर आत्मा में लगाना। (२.) कषाय-प्रतिसंलीनता-क्रोध, मान, माया. लोभ-इन चारों कषायों के प्रवाह में आत्मा को न बहने देना। इसे कषायविजय भी कहा जाता है। (३) योग-प्रतिसंलीनता-मन-वचन-काय इन तीनों योगों का निरोध करना, अशुभ से रोककर शुभ में प्रवृत्त करना। (४) विविक्त शयनासन सेवना-स्त्री, पशु, नपुंसक से रहित शय्या और आसन का उपयोग करना। ऐसे स्थान का त्याग करना जहाँ स्त्री, पशु, नपुंसक का निराबाध (frequently) आवागमन हो अथवा समीप ही उनका निवास हो। क्योंकि इनकी समीपता से श्रमण के मन में विकारी भावों के उत्पन्न होने की संभावना है। आभ्यन्तर तप के लाभ, भेद और विधि आभ्यन्तर तप का प्रमुख उद्देश्य कार्मण शरीर का शोधन और कर्मनिर्जग है। कर्मनिर्जग से आत्मा की विशुद्धि होती है और मोक्ष-प्राप्ति का पथ प्रशस्त होता है। __ पूर्व वर्णित बाह्य तप औदारिक और तेजस् शरीरों की विशुद्धि करते हैं और आभ्यन्नर तप कार्मण शरीर की। यही आभ्यन्तर तप की विशेषता है। आभ्यन्तर तप के छह भेद हैं। इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है१. प्रायश्चित्त तप यह आभ्यन्तर का प्रथम भेद है। इसका उद्देश्य है-पाप अथवा स्खलनाओं का शोधन करना, भूल को सुधारना। पाप अथवा अपराध या स्खलना के लिए उचित दण्ड भी प्रायश्चित्त तप के अन्तर्गत ही परिग्रहीत किये जाते हैं। इसके आलोचनार्ह आदि दस भेद हैं। २. विनय तप विनय का अभिप्राय विनम्रता तथा अनुशासन-दोनों ही है। विनय आठ कर्मों को नष्ट करने वाला है। सामान्य विनम्रता सिर्फ विनय है। विनय तप का रूप तब लेता है; जब श्रमण अपने अहं को छोड़कर आत्मा को विनम्र बनाता है। मान-अभिमान के विसर्जन से ही विनय तप का रूप लेता है। और आत्म-परिणामों की विनम्रता ही विनय तप है। आगमों में विनय तप के चार, पाँच और सात भेद बताये गये हैं; किन्तु सात भेद अधिक प्रसिद्ध हैं। ३. वैयावृत्य तप वैयावृत्य का साधारणतः अर्थ सेवा किया जाता है किन्तु सेवा और वैयावृत्य में अन्तर है। वैयावृत्य में समर्पण भाव की प्रमुखता है। जब साधक (श्रमण) निष्काम भाव से और इच्छारहित होकर किसी रोगी, .३५४ . अन्तकृद्दशा महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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