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________________ अनशन तप के उपभेद-अनशन तप बहुत विस्तृत है, इसके अनेक उपभेद हैं लेकिन उन सब को काल की समय-सीमा की दृष्टि से दो उपभेदों में वर्गीकृत कर दिया गया है (१) इत्वरिक-यह तप एक निश्चित समय-सीमा निर्धारित करके किया जाता है। यह एक उपवास चतुर्थभक्त से लेकर छह मास तक का हो सकता है। . (२) यावत्कथिक-इसमें जीवनभर के लिए अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक आहार ग्रहण करने का त्याग कर दिया जाता है। जीवन की अन्तिम वेला में यह तप संलेखना के साथ किया जाता है। इसी को संथाग भी कहा जाता है। इत्वरिक तप के उपभेद-समय-सीमा निर्धारित करके आहार-त्याग रूप इत्वरिक तप के प्रमुखतया छह उपभेद हैं (i) श्रेणी तप-चतुर्थ भक्त (उपवास), वेला, तेला, चौला, पंचोला, अठाई, पाक्षिक, मासखमण आदि से लेकर छह मास तक का अनशन तप श्रेणी तप होता है। (ii) प्रतर तप-अंकों के क्रम से अनशन करना प्रतर तप है; उदाहरणार्थ--१. २. ३, ४, २, ३, ४, १३. ४. १, २ आदि अंकों के आधार से तप करना। (iii) घन तप-घन के कोष्ठों में आने वाले अंकों के आधार पर तप करना। यथा-८ x ८ = ६४ इस आधार पर. तप करना। (iv) वर्ग तप-यथा ६४ x ६४ = ४,०९६ इन अंकों के अनुसार तप करना। (१) वर्ग-वर्ग तप-४,०९६ x ४,०९६ = १६,७७.२१६ इन अंकों के अनुसार तप करना। (vi) प्रकीर्णक तप-इसे विविध (Miscellaneous) तप कहा जा सकता है। इसके उत्तरभेद भी अनेक हैं-कनकावली, मुक्तावली. एकावली, महासिंहनिष्क्रीड़ित, लघुसिंहनिष्क्रीड़ित, गुणरत्नसंवत्सर, वज्रमध्यप्रतिमा, यवमध्यप्रतिमा, भद्रप्रतिमा, महाभद्रप्रतिमा, सर्वतोभद्रप्रतिमा, आयंबिल वर्द्धमान आदि प्रकीर्णक तप के अनेक भेद हैं। - नवकारसी, पोरसी, पूर्वार्द्ध, एकासन, एकल ठाणा (एक स्थान), दिवस चरिम, रात्रि-भोजन त्याग, अभिग्रह, चतुर्थभक्त, आयंबिल-इन दस तपों की गणना भी प्रकीर्णक तप में की जाती है। इस प्रकार अनशन तप बहुत व्यापक है और साधकों द्वारा अधिकांशतः इसकी साधना की जाती है। इसका महत्त्व यह है कि सभी मुक्तिगामी जीव, यहाँ तक तीर्थंकर भी मुक्तिगमन से कुछ दिन पहले ही इस तप की आराधना प्रारम्भ कर देते हैं। संक्षेप में सभी साधक अनशन तप (यावत्कथिक अनशन तप) से मुक्ति प्राप्त करते हैं। जिसे संथारा भी कहा जाता है। २. ऊनोदरी तप यह बाह्य तप का दूसरा भेद है। ऊनोदरी का अभिप्राय है-भूख से कम भोजन ग्रहण करना। वस्त्र आदि के सन्दर्भ में इसका अभिप्राय आवश्यकता से कम लेना-अपने पास रखना। कषाय के सन्दर्भ में इसका अभिप्राय है-कषायों को-क्रोध, मान आदि को कम करना। अन्तकृद्दशा महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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