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________________ पुनः बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तपों के छह-छह भेद किये गये हैं बाह्य तप के छह भेद हैं-(१) अनशन, (२) ऊनोदरी, (३) भिक्षाचर्या, (४) रस-परित्याग, (५) कायक्लेश, और (६) प्रतिसंलीनता। इन सभी के उत्तरभेद भी हैं। इसी प्रकार आभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं-(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, और (६) व्युत्सर्ग। इन सभी के उत्तरभेद भी गिनाये गये हैं। बाह्य तप के लाभ, भेद और विधि बाह्य तप के छह भेद उपर्युक्त पंक्तियों में उल्लेखित किये जा चुके हैं। अब इनके संक्षिप्त लाभ, भेद और विधि आदि का वर्णन किया जाता है। १. अनशन तप __अनशन बाह्य तप का प्रथम भेद है। इसे तप महल का प्रथम सोपान भी कहा जा सकता है। आत्मा के आवरणों-तैजस् और औदारिक अथवा सूक्ष्म और स्थूल शरीरों की शुद्धि अनशन तप से ही होती है। अशन का अभिप्राय है आहार और अनशन का अभिप्राय है निराहारता-आहार ग्रहण न करना। अनशन से शरीर को तो लाभ होता ही है, उसके विकार समाप्त हो जाते हैं, साथ ही आत्मा को भी लाभ होता है। जिस प्रकार सप्ताह में एक दिन का अवकाश मिलता है तो उस दिन आराम करके व्यक्ति तरोताजा हो जाता है, मशीनरी भी विश्राम करके पुनः ठीक ढंग से चलने लगती है। पंखे, हीटर, जनरेटर आदि विद्युत् उपकरण भी आराम चाहते हैं, यदि लगातार चलाए जायें तो फैंक जाते हैं, इनको भी विश्राम देना आवश्यक है। - इसी प्रकार हमारे शरीर की मशीनरी है। आहार करने से शरीर के समस्त अवयवों को काम करना पड़ता है। पाचक यंत्र आहार का पाचन करते हैं, लिवर रक्त बनाता है आदि। लगातार आहार लेने से इन्हें विश्राम नहीं मिलता, अतः इनमें गड़बड़ी आने लगती है। परिणामस्वरूप अग्निमांद्य, कब्ज, गैस, अल्सर आदि अनेक रोग उभरने लगते हैं। इनके शमन का एक मात्र सरल उपाय है-अनशन। इसलिए आयुर्वेद में लंघन को परम औषध कहा गया है। अनशन का यह लाभ तो स्थूल शरीर में स्पष्ट दिखाई देता है। लेकिन इसका आत्मिक लाभ भी है। उसका अनुभव तप साधक करता है। मात्र अनशन-आहार ग्रहण करना, भूखा रहना अनशन तप नहीं है। अनशन तप तब बनता है जब इसका उद्देश्य आत्म-शोधन अथवा आत्मा से संपृक्त शरीर का शोधन हो। आध्यात्मिक क्षेत्र में अनशन का दूसरा नाम उपवास भी है। उपवास का अभिप्राय है आत्मा के समीप रहना यानी भोजन आदि की क्रियाओं को त्यागकर संपूर्ण समय आत्मा के स्वरूप का चिन्तन करना। __ अनशन तप, यदि गहराई और विस्तृत दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो यह तपरूपी महल की आधारभूमि है। __ अन्तकृद्दशा महिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007648
Book TitleAgam 08 Ang 08 Antkrutdashang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana, Rajkumar Jain, Purushottamsingh Sardar
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1999
Total Pages587
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_antkrutdasha
File Size12 MB
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