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NH-21.
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On entering that village having a feast, that bhikshu or bhikshuni should avoid that specific house and take and consume the acceptable and faultless food offered due to his appearance (ascetic garb including the broom) from various other houses.
विवेचन-'माइट्ठाणं संफासे' का अर्थ 'मातृस्थान का स्पर्श करना' है। मातृस्थान का अर्थ हैकपट या कपटयुक्त वचन। इससे सम्बन्धित तथा माया का कारण बताने वाले मूल पाठ का आशय यह है कि वह साधु संखडि वाले ग्राम में आया तो है-संखडि-निष्पन्न आहार लेने, किन्तु सीधा संखडि-स्थल पर न जाकर उस गाँव में अन्यान्य घरों से थोड़ी-सी भिक्षा ग्रहण करके पात्र खाली करने के लिए उसी गाँव में कहीं बैठकर वह आहार कर लेता है, ताकि खाली पात्र देखकर संखडि वाला गृहपति भी आहार के लिए विनती करेगा तो मैं इन पात्रों में भर लूँगा। इसी भावना को लक्ष्य में रखकर यहाँ कहा गया है कि ऐसा साधु माया का सेवन करता है। अतः संखडि वाले ग्राम में अन्यान्य घरों से प्राप्त आहार को वहीं करना उचित नहीं है।
Elaboration—Maitthanam samfase' means to embrace matristhana, which means deceit or deceptive speech. The purport of the text related to cause of deceit is--the bhikshu or bhikshuni comes to the village with the intention of getting the festive food but instead of going straight to the feast he visits other houses and collects meager food. He then goes to some solitary place and eats that little food so that when he reaches the festive house, the host, seeing his empty pots, will offer him alms giving him the opportunity to fill his pots. Because of this state of mind it is mentioned here that such ascetic embraces deceit. Therefore in a village having feast it is not proper to eat the food collected from other houses there itself.
१७. से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा गाम वा जाव रायहाणिं वा, इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिंसि वा संखडि सिया, तं पि य गामं वा जाव रायहाणिं वा संखडिं संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। केवली बूया-आयाणमेयं। ___ आइण्णोवमाणं संखडिं अणुपविस्समाणस्स
पाएण वा पाए अक्तपुव्वे भवइ, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुव्वे भवइ, पाएण वा पाए आवडियपुव्वे भवइ, सीसेण वा सीसे संघट्टियपुव्वे भवइ, काएण वा काए संखोभियपुव्वे भवइ। दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा आचारांग सूत्र (भाग २)
( ४२ )
Acharanga Sutra (Part 2)
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