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पुढविकायसमारंभेणं जाव अगणिकाये वा उज्जालियपुव्वे भवइ । जे भयंतारो तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं एगपक्खं ते कम्मं सेवंति । अयमाउसो ! अप्पसावज्जकिरिया यावि भवति ।
एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं । ॥ बीओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥
१०६. इस संसार में अनेक गृहपति आदि श्रद्धालु व्यक्ति रहते हैं । वे साधुओं के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि रखते हैं। उन्होंने अपने प्रयोजन के लिए यत्र-तत्र मकान बनवाए हैं, जैसे कि लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि। उनके निर्माण में पृथ्वीकाय यावत् सकाय का महान् संरम्भ, समारम्भ एवं आरम्भ हुआ है। वे अनेक प्रकार के पापजनक कृत्यों से बने हैं । वहाँ पहले सचित्त पानी डाला गया है, अग्नि भी प्रज्वलित की गई है। जो पूज्य निर्ग्रन्थ ( - गृहस्थ द्वारा अपने लिए निर्मित) उन लोहकारशाला यावत् भूमिगृह आदि वास स्थानों में आकर निवास करते हैं तथा अन्य प्रशस्त उपहाररूप दिये गये पदार्थों का उपयोग करते हैं वे एकपक्ष ( भाव से साधुरूप) का सेवन करते हैं । हे आयुष्मन् ! उन श्रमणों के लिए यह शय्या अल्पसावद्य क्रिया निर्दोष रूप होती है ।
यह (शय्यैषणा-विवेक) ही उस भिक्षु या भिक्षुणी के लिए ( ज्ञानादि आचारयुक्त भिक्षुभाव की) समग्रता है ।
106. In this world there live many devout citizens who have faith awareness and interest in Shramans. They construct smithy and other said types of large buildings at different places for their own use. These dwellings have been constructed sinfully with intense sinful intent and grave sinful action against six life-forms and by indulging in a variety of other sinful deeds. Water has already been poured; fire has already been burnt (for warmth); and other such things have already been done there. The Nirgranth ascetics who come and stay at such dwellings (constructed for a householder for his own use) and also use for stay other such piously gifted places, do not live in contradictions (physically as an ascetic and mentally also as an ascetic). O long lived one! They are not guilty of transgression of the code of prohibition of places made on purpose (alpasavadya kriya).
आचारांग सूत्र (भाग २)
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Achgranga Sutra (Part 2)
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