SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ This (prudence in searching for bed or place of stay) is the totality (of conduct including that related to knowledge) for that bhikshu or bhikshuni. विवेचन-सूत्र ९७ से लेकर १०६ तक नौ प्रकार की शय्याओं का प्रतिपादन किया गया है। शय्या का अर्थ है ठहरने का स्थान। बृहत्कल्पभाष्य में भी शय्याविधिद्वार में इन्हीं नौ प्रकार की शय्याओं का विस्तार से निरूपण किया गया है। ____ कालातिक्कंतोवट्ठाण-अभिकंत-अणभिकता या वज्जा य महावज्जा सावज्ज महऽप्पकिरिया य॥ अर्थात् शय्या नौ प्रकार की होती है, जैसे कि-(१) कालातिक्र ) उपस्थाना, (३) अभिक्रान्ता, (४) अनभिक्रान्ता, (५) वा, (६) महावा, (७) सावद्या, (८) महासावद्या, और (९) अल्पसावधा। ___ इन शय्याओं के लक्षण तथा भाव इस प्रकार हैं (१) कालातिक्रान्ता क्रिया-जहाँ साधु ऋतुबद्ध (मासकल्प-शेष काल) और वर्षा काल (चौमासे) में रहे हों, ये दोनों काल पूर्ण होने पर भी जहाँ ठहरा जाये। स (२) उपस्थाना क्रिया-ऋतुबद्धवास और वर्षावास का जो काल नियत है, उससे दुगुना काल अन्यत्र दूसरे स्थान पर बिताये बिना ही यदि पुनः उसी उपाश्रय में आकर साधु ठहरते हैं तो वह उपस्थाना क्रिया कहलाती है। उदाहरण के लिए एक मासकल्प ठहरकर दो मास बाहर बिताना तथा एक वर्षावास करके दो वर्षावास अन्यत्र बिताना यह विधि है, इसका उल्लंघन करने पर उपस्थाना क्रिया लगती है। (३) अभिक्रान्ता क्रिया-जो शय्या (धर्मशाला) आदि सबके लिए सर्वदा खुली है उसमें पहले से अन्यतीर्थिक गृहस्थ आदि ठहरे हुए हैं, बाद में निर्ग्रन्थ साधु भी आकर ठहर जाते हैं तो वह अभिक्रान्ता क्रिया कहलाती है। (४) अनभिक्रान्ता क्रिया-वैसी ही सार्वजनिक-सार्वकालिक शय्या में अन्य परिव्राजक गृहस्थ अभी तक ठहरे नहीं हैं, उसमें यदि सर्वप्रथम निर्ग्रन्थ साधु आकर ठहर जाते हैं, तो वह अनभिक्रान्ता क्रिया कहलाती है। ' (५) वा क्रिया-वह शय्या कहलाती है, जो गृहस्थ ने अपने लिए बनवायी थी, किन्तु बाद में उसे साधुओं को रहने के लिए दे दी और स्वयं ने अपने लिए दूसरा स्थान बनवा लिया। वह साधु के लिए वा-त्याज्य है और वहाँ ठहरना वा क्रिया कहलाती है। (६) महावा क्रिया-जो स्थान बहुत-से श्रमणों, भिक्षाचरों, ब्राह्मणों आदि के उद्देश्य से गृहस्थ नये सिरे से आरम्भ करके बनवाता है, वह महावा शय्या कहलाती है। वह अकल्पनीय है। शय्यैषणा : द्वितीय अध्ययन ( १९५ ) Shaiyyaishana : Second Chapter Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.007647
Book TitleAgam 01 Ang 02 Acharanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2000
Total Pages636
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_English, Book_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, Conduct, & agam_acharang
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy