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१०५. इस संसार में गृहपति आदि कई व्यक्ति होते हैं जो साधुओं के आचार-व्यवहार :: के सम्बन्ध में तो अच्छी प्रकार नहीं जानते, किन्तु उनके प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि
रखते हैं, उन्होंने किसी एक ही निर्ग्रन्थ श्रमण वर्ग के उद्देश्य से लोहकारशाला यावत्
भूमिगृह आदि मकान यत्र-तत्र बनवाये हैं। उन मकानों का निर्माण पृथ्वीकाय के महान् : समारम्भ यावत् त्रसकाय के महान् संरम्भ-समारम्भ और आरम्भ से तथा नाना प्रकार के
महान् पापकर्मजनक कृत्यों से हुआ है। जैसे कि-साधुओं के लिए मकान पर छत आदि डाली गई है, उसे लीपी-पोती गयी है, संस्तारक के स्थान को सम बराबर बनाया है, दरवाजे बनवाये हैं, इन कार्यों में पहले ही सचित्त शीतल पानी डाला गया है, (शीतनिवारणार्थ-) अग्नि भी पहले प्रज्वलित की गयी है। जो निर्ग्रन्थ श्रमण उस प्रकार के आरम्भ-समारम्भ से निर्मित मकानों में आकर रहते हैं, भेंटस्वरूप दिये गये छोटे-बड़े गृहों में ठहरते हैं, वे द्विपक्ष-(द्रव्य से साधुरूप और भाव से गृहस्थरूप) कर्म का सेवन करते हैं। आयुष्मन् ! (उन श्रमणों के लिए) यह शय्या महासावध क्रिया दोष से युक्त होती है।
105. In this world there live many devout citizens who have faith, awareness and interest in Shramans. They construct smithy and other said types of large buildings at different places specifically for the use of all types of Shramans. These dwellings have been constructed sinfully with intense sinful intent and grave sinful action against six life-forms and by indulging in a variety of other sinful deeds. For example—for the benefit of ascetics a roof has been laid, plastered and polished; the ground has been leveled for making bed; doors have been made; water has already been poured; fire has already been burnt (for warmth); and other such things have already been done. The Nirgranth ascetics who come and stay at such sinfully constructed dwellings and also use for stay other such gifted places, in fact, live in contradictions (physically as an ascetic and
mentally as a householder). O long lived one ! They are guilty of grave transgression of the code of prohibition of places made for this purpose (
Mahasavadya kriya). १०६. इह खलु पाईणं वा ४ जाव तं रोयमाणेहिं अप्पणा सयट्ठाए तत्थ २ अगारीहिं अगाराइं चेइयाइं भवंति, तं जहा-आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा महया
शय्यैषणा : द्वितीय अध्ययन
( १९३ )
Shaiyyaishana : Second Chapter
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